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शास्त्र-मर्यादा
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अथवा परिपूर्तिकी आवश्यकता समझता है उसे अपनी शक्त्यनुसार दूर करके या पूर्ण करके प्रचार करता है । इस प्रकारसे रक्षकोंके पहले भागके द्वारा शास्त्रका प्रमार्जन तथा पूर्ति तो नहीं होती फिर भी एकदेशीय गहराई उनमें आती है और रक्षकों के द्वितीयभाग-द्वारा शास्त्रका प्रमार्जन तथा पूर्ति होनेके कारण वे विशालताको प्राप्त होते हैं। किसी भी स्रष्टाके शास्त्र-साहित्यके इतिहासका अध्ययन किया जायगा तो ऊपरकी बातपर विश्वास हुए विना नहीं रहेगा । उदाहरणके तौर पर आर्य ऋषियोंके अमुक वेदभागको मूल रचना मानकर प्रस्तुत वस्तु समझानी हो, तो ऐसा कहा जा सकता है कि मंत्रवेदका ब्राह्मण भाग और जैमिनीयकी मीमांसा ये प्रथम प्रकारके रक्षक हैं
और उपनिषद् , जैन आगम, बौद्ध पिटक, गीता, स्मृति और अन्य ऐसे ही ग्रन्थ द्वितीय प्रकारके रक्षक हैं; क्योंकि ब्राह्मण ग्रन्थों और पूर्वमीमांसाको मंत्रवेदमें चली आनेवाली भावनाओंकी व्यवस्था करनी है-उसके प्रामाण्यको अधिक मजबूत कर उसपर श्रद्धाको दृढ़ करना है। किसी भी तरह मंत्रवेदका प्रामाण्य दृढ़ रहे, यही एक चिन्ता ब्राह्मणकारों और मीमांसकोंकी है । उन कट्टर रक्षकोंको मंत्रवेदमें वृद्धि करने योग्य कुछ भी नज़र नहीं आता, उलटा वृद्धि करनेका विचार ही उन्हें घबरा देता है। जब कि उपनिषत्कार, आगमकार, पिटककार वगैरह मंत्रवेदमेंसे मिली हुई विरासतको प्रमार्जन करने योग्य, वृद्धि करने योग्य और विकास करने योग्य समझते हैं। ऐसी स्थितिमें एक ही विरासतको प्राप्त करनेवाले भिन्न भिन्न समयोंके और समान समयके प्रकृतिभेदवाले मनुष्योंमें पक्षापक्षी और किलेबन्दी खड़ी हो जाती है।
नवीन और प्राचीनमें द्वन्द्व उक्त किलेबन्दीमेंसे सम्प्रदायका जन्म होता है और एक दूसरेके बीच विचार-संघर्ष गहरा हो जाता है। देखनेमें यह संघर्ष अनर्थकारी लगता है, परन्तु इसके परिणामस्वरूप ही सत्यका आविर्भाव आगे बढ़ता है। पुष्ट विचारक या समर्थ स्रष्टा इसी संघर्ष मेंसे जन्म लेता है और वह चले आते हुए शास्त्रीय सत्योंमें और शास्त्रीय भावनाओंमें नया कदम बढ़ाता है। यह नया कदम पहले तो लोगोंको चौंका देता है और उनका बहुभाग रूढ और श्रद्धास्पद शब्दों तथा भावनाओंके हथियारद्वारा इस नये विचारक या सर्जकका
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