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शास्त्र मर्यादा
जिसको अपनी सत्य की शोध में और सत्यके आविर्भावमें अपने पूर्ववर्ती और समसमयवर्ती दूसरे शोधकोंकी शोधकी थोड़ी बहुत विरासत न मिली हो और केवल उसने ही एकाएक अपूर्वरूपसे वह सत्य प्रकट किया हो ? हम जरा भी विचार करेंगे तो मालूम पड़ेगा कि कोई भी सत्यशोधक अथवा शास्त्रप्रणेता अपनेको मिली हुई विरासतकी भूमिकापर ही खड़ा होकर अपनी दृष्टि के अनुसार या अपनी परिस्थिति के अनुसार सत्यका आविर्भाव करनेमें प्रवृत्त होता है और वैसा करके सत्यके आविर्भावको विकसित करता है । यह विचारसरणी यदि त्याज्य न हो, तो कहना चाहिए कि प्रत्येक शास्त्र, उस विषयमें जिन्होंने शोध की, जो शोध कर रहे हैं या जो शोध करनेवाले हैं, उन व्यक्तियों की क्रमिक तथा प्रकारभेदवाली प्रतीतियों का संयोजन है । प्रतीतियाँ जिन संयोगोंमें क्रमसे उत्पन्न हुई हों उन्हें संयोगोंके अनुसार उसी क्रम संकलित कर लिया जाय तो उस विषयका पूर्ण अखण्ड - शास्त्र बन जाय और इन सभी त्रैकालिक प्रतीतियों या आविर्भावोंमेंसे अलग अलग खण्ड ले लिये जायँ, तो वह अखण्ड शास्त्र भले ही न कहलाए फिर भी उसे शास्त्र कहना हो तो इसी अर्थमें कहना चाहिए कि वह प्रतीतिका एक खण्ड भी एक अखण्ड शास्त्रका अंश है | परन्तु ऐसे किसी अंशको यदि सम्पूर्णताका नाम दिया जाय, तो वह मिथ्या है। यदि इस बात में कुछ आपत्ति न हो ( मैं तो कोई आपत्ति नहीं देखता ) तो हमें शुद्ध हृदयसे स्वीकार करना चाहिए कि केवल वेद, केवल उपनिषत्, जैनागम, बौद्ध पिटक, अवेस्ता, बाइबिल, पुराण, कुरान, या तत्तत् स्मृतियाँ, ये अपने अपने विषयसम्बन्धमें अकेले ही सम्पूर्ण और अन्तिम शास्त्र नहीं हैं । ये सब आध्यात्मिक, भौतिक अथवा सामाजिक विषयसम्बन्धी एक अखण्ड त्रैकालिक शास्त्र के क्रमिक तथा प्रकारभेदवाले सत्यके आविर्भावके सूचक हैं अथवा उस अखंड सत्यके देशकाल तथा प्रकृतिभेदानुसार भिन्न भिन्न पक्षोंको प्रस्तुत करनेवाले खण्ड-शास्त्र हैं । यह बात किसी भी विषयके ऐतिहासिक और तुलनात्मक अभ्यासीके लिए समझ लेना बिलकुल सरल है । यदि यह बात हमारे हृदय में उतर जाय और उतारनेकी ज़रूरत तो है ही, तो हम अपनी बातको पकड़े रहते हुए भी दूसरोंके प्रति अन्याय करनेसे बच जाएँगे और ऐसा करके दूसरेको भी अन्याय में उतारनेकी परिस्थतिसे बचा लेंगे । अपने माने हुए सत्यके प्रति वफादार रहनेके लिए यह
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