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धर्म और समाज
आजका युवक जीवन चाहता है; उसको स्वरूपकी बनिस्बत आत्माकी ज्यादा फिक्र है; शुष्क वादोंकी अपेक्षा जीवित सिद्धान्त ज्यादा प्रिय लगते हैं; पारलौकिक मोक्षकी निष्क्रिय बातोंकी अपेक्षा ऐहिक मोक्षकी सक्रिय बातें ज्यादा आकर्षित करती हैं; संकुचित सीमामें चलने या दौड़नेमें उसे कोई दिलचस्पी नहीं । उसको धर्म करना हो तो धर्म और कर्म करना करना हो तो कर्म, परन्तु जो करना हो खुल्लमखुल्ला करना अच्छा लगता है; धर्मकी प्रतिष्ठाका लोभ लेकर दंभके जालमें पड़ना उसे अभीष्ट नहीं। उसका मन किसी वेष, किसी क्रियाकांड या किसी विशेष प्रकारके व्यवहार मात्रमें बँधे रहनेको तैयार नहीं; इसीलिए आजका युवक-मानस अपना अस्तित्व और विकास केवल साम्प्रदायिक भावनामें पोषित कर सके, ऐसी बात नहीं रही है। अतएव जैन हो या जैनेतर, प्रत्येक युवक राष्ट्रीय महासभाके विशाल प्रांगणकी तरफ हँसते हुए चेहरे और फूलती हुई छातीसे एक दूसरेके साथ कन्धा मिलाकर जा रहा है।
यदि इस समय सारे सम्प्रदाय चेत जाय तो नये रूपमें उनके सम्प्रदाय जी सकते हैं और अपनी नई पीढ़ीके लोगोंका आदर अपनी तरफ खींचकर रख सकते हैं । जिस तरह आजका संकीर्ण जैन सम्प्रदाय क्षुब्ध हो उठा है, उसी तरह यदि वह नवयुवकोंकी तरफ-सच्चे तौरपर नवयुवकोंको आकर्षित करनेवाली राष्ट्रीय महासभाकी तरफ-उपेक्षा या तिरस्कारकी दृष्टिसे देखेगा तो उसकी दोनों तरफ मौत है। - नई-शिक्षाप्राप्त एक तरुणी एक गोपाल-मन्दिरमें कुतुहलवश चली गई। गोस्वामी दामोदर लालजीके दर्शनोंके हेतु बहुत-सी भावुक ललनाएँ जा रही थीं, यह भी उनके साथ हो ली। गोस्वामीजी भक्तिनोंको अलग अलग संबोधन करके कहने लगे कि “ मां कृष्ण भावय आत्मानं च राधिकाम् " अर्थात् मुझे 'कृष्ण समझो और अपनेको राधिका । और सब भोली भक्तिनें तो महाराज श्रीके वचनोंको कृष्ण-वचन समझकर इसी तरह मानती आ रहीं थीं, किन्तु उस नवशिक्षिता युवतीमें तर्कबुद्धि जागृत हो गई थी। वह चुप नहीं रह सकी नम्रतापूर्वक किन्तु निडरतासे बोली कि " आपको कृष्ण माननेमें मुझे जरा भी आपत्ति नहीं, किन्तु मैं यह देखना चाहती हूँ कि कृष्णने जिस तरह कंसके हाथीको पछाड़ दिया था, उसी तरह आप किसी हाथी नहीं, सांड़ नहीं, एक
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