________________
-सम्प्रदाय और कांग्रेस
'घरका कार्यक्षेत्र छोड़कर लंदन और अमेरिकाकी परिषदोंमें भाग लेनेके लिए - माथापच्ची करता है। मालूम नहीं, स्वदेशकी प्रत्यक्ष विश्वबंधुत्वसाधक प्रवृत्तियोंमें अपने तन मन और धनका सहयोग देना छोड़कर ये परदेशमें हजारों मील दूरकी परिषदोंमें दस पाँच मिनट बोलनेके लिए जबर्दस्ती अपमानपूर्वक क्यों ऊँचे नीचे होते हैं । इन सबका जवाब ढूँढ़ेंगे तो आपको दूसरे वर्गका मानस समझमें आ जावेगा । बात यह है कि दूसरे वर्गको कुछ करना तो अवश्य है, परन्तु वही करना है जो प्रतिष्ठा बढ़ावे और फिर वह प्रतिष्ठा ऐसी हो कि अनुयायी लोगों के मनमें बसी हुई हो। ऐसी न हो कि जिससे अनुयायि-योंको कोई छेड़छाड़ करनेका मौका मिले। इसीलिए यह उदार वर्ग जैनधर्ममें प्रतिष्ठाप्राप्त अहिंसा और अनेकान्तके गीत गाता है । ये गीत होते भी ऐसे हैं . कि इनमें प्रत्यक्ष कुछ भी नहीं करना पड़ता । पहला वर्ग तो इन गीतोंके लिए उपाश्रयोंका स्थान ही पसन्द करता था, जब कि दूसरा वर्ग उपाश्रयके सिवाय दूसरे ऐसे स्थान भी पसन्द करता है जहाँ गीत तो गाये जा सकें, पर कुछ करने की आवश्यकता न हो । तत्त्वतः दूसरा उदार वर्ग अधिक भ्रामक है, - कारण उसको बहुत लोग उदार समझते हैं । गायकवाड़नरेश जैसे दूरदर्शी राजपुरुषोंके लिए विश्व बंधुत्वकी भावनाको मूर्तिमान करनेवाली राष्ट्रीय - महासभाकी प्रवृत्ति में भाग न लेनेका कोई कारण रहा हो, यह समझमें आ सकता है किन्तु त्याग और सहिष्णुताका चोला पहनकर बैठे हुए और तपस्वी माने जानेवाले जैन साधुओंके विषयमें यह समझना मुश्किल है । वे अगर 'विश्वबन्धुत्वको वास्तव में जीवित करना चाहते हैं तो उसके प्रयोगका सामने पड़ा हुआ प्रत्यक्ष क्षेत्र छोड़कर केवल विश्वबन्धुत्वकी शाब्दिक खिलवाड़ करनेवाली परिषदोंकी मृगतृष्णाके पीछे क्यों दौड़ते हैं ?
अब तीसरे वर्गको लीजिए | यह वर्ग पहले कहे हुए दोनों वर्गोंसे बिलकुल भिन्न है | क्योंकि समें पहले वर्ग जैसी संकुचित दृष्टि या कट्टरता नहीं है कि जिसको लेकर चाहे जिस प्रवृत्ति के साथ केवल जैन नाम जोड़कर ही प्रसन्न हो जाय, अथवा सिर्फ क्रियाकांडोंमें मूर्छित होकर समाज और देशकी प्रत्यक्ष सुधारने योग्य स्थिति के सामने आँख बन्द करके बैठ रहे । यह तीसरा वर्ग उदार हृदयका है, लेकिन दूसरे वर्गकी उदारता और इसकी उदारतामें बड़ा
Jain Education International
७९
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org