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शस्त्र और शास्त्र हमारे देशमें शास्त्रोंका निर्माता, रक्षक, विकासक और उनके द्वारा सारी प्रवृत्तियाँ करनेवाला जो वर्ग है वह ब्राह्मण नामसे और शस्त्रोंका धारण करनेवाला और उपयोग करनेवाला जो वर्ग है वह क्षत्रिय नामसे प्रसिद्ध है। प्रारम्भमें ब्राह्मण वर्गका कार्य शास्त्रोद्वारा और क्षत्रियोंका शस्त्रोद्वारा लोकरक्षा या समाजरक्षा करना था। यद्यपि ये दोनों ही रक्षा-कार्य थे, परन्तु इनका -स्वरूप भिन्न था। शास्त्रमूर्ति ब्राह्मण जब किसीकी रक्षा करना चाहता है तब उसके प्रति शास्त्रका प्रयोग करता है, अर्थात् उसे हितबुद्धिसे, उदारतासे, प्रेमसे वस्तुस्थितिका ज्ञान कराता है, और ऐसा करके वह विपरीत-मार्गपर जानेवाले व्यक्तिको बचा लेता है। वैसा करने में यदि उसे सफलता नहीं मिलती, तो कमसे कम स्वयं अपनी उन्नत-स्थितिको सुरक्षित रखता है । अर्थात् शास्त्रका कार्य मुख्यरूपसे वक्ताको और साथ ही साथ श्रोताको भी बचानेका होता था। उससे श्रोताका अनिष्ट नहीं होता था। शस्त्रमूर्ति क्षत्रिय यदि आक्रमणकारीसे रक्षा करना चाहे, तो शस्त्र-द्वारा आक्रमणकारीकी हत्या करके ही कर सकता है। इसी प्रकार किसी निर्बलकी रक्षा भी बलवान् आक्रमणकारीकी हत्या करके या उसे हराकर ही की जा सकती है। इस तरह एककी रक्षामें प्रायः दूसरेका नाश आवश्यक है। दूसरेकी बलिसे ही आत्मरक्षा या पररक्षा सम्भव होती है। इसी कारण जो शासन करके या समझा करके रक्षणकी शक्ति रखता है वह शास्त्र है और दूसरोंका हनन करके किसी एककी रक्षा करता है वह शस्त्र है। यह भेद सात्त्विक और राजस प्रकृति-भेदका सूचक है। इस भेदके रहनेपर भी ब्राह्मण और क्षत्रिय-प्रकृति जबतक समाज-रक्षाके ध्येयसे विचलित नहीं हुई तबतक दोनोंने अपनी अपनी मर्यादानुसार निःस्वार्थ भावसे कार्य किया और शस्त्र तथा शास्त्र दोनोंकी प्रतिष्ठा बनी रही।
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