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धर्म और पंथ
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पन्य यद्यपि धर्ममेसे ही उत्पन्न होता है और अपनेको धर्मका प्रचारक मानता है किन्तु हमेशा धर्मका घात ही करता रहता है। जैसे जीवित रुधिर
और मांस मेंसे उगा हुआ नख जैसे जैसे बढ़ता जाता है वैसे वैसे रुधिर और मांसको भी नुकसान पहुंचाता है । इस लिए जब बढ़े हुए नखको काट दिया जाता है तभी हाड़-पिंजर सुरक्षित रहते हैं। इसी प्रकार धर्मसे अलग पड़ा हुआ पन्थ, चाहे वह धर्मसे ही पैदा हुआ हो, जब काटकर साफ कर दिया जाता है तभी मानव-समाज सुखी होता है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि धर्म
और पन्यमें किसी प्रकारका मेल है या नहीं, और यदि है तो किस तरहका ? इस का उत्तर सरल है । जीवित नखको कोई नहीं काटता । यदि वह कट जाय तो दुःख होता है । धिर और मांस की रक्षाको भी धक्का पहुँचता है। वे सड़ने लगते हैं । इसी प्रकार पन्थोंमें यदि धर्मका जीवन हो तो हजार पन्थ भी बुरे नहीं हैं। जितने मनुष्य हैं, चाहे उतने ही पन्थ हो जाय फिर भी लोगोंका कल्याण होगा। क्योंकि इसमें प्रकृतिभेद और दूसरी विशेषताओंके अनुसार हजारों भिन्नताएँ होने पर मी क्लेश नहीं होगा, प्रेम बना रहेगा। अभिमान नहीं होगा, नम्रता बनी रहेगी । शत्रुभाव नहीं होगा, मित्रता कायम रहेगी। उत्तेजितपना नहीं होगा, क्षमाभाव स्थिर रहेगा । पन्थ पहले थे, अब हैं
और आगे भी रहेंगे। उनमें सुधारने या करने लायक इतना ही है कि उनसे अलग पड़े हुए धर्मके तत्त्वको फिरसे उनमें डाल दिया जाय । हम किसी भी पंथको मानें किन्तु उसमें धर्मके तत्त्वोंको सुरक्षित रखते हुए ही उसका अनुसरण करें। अहिंसाके लिए हिंसा न करें। सत्यके लिए असत्य न बोलें । पंथमें धर्म के प्राण फूंकनेकी शर्त यही है कि हमारी दृष्टि सत्यका आग्रह करनेवाली बन जाय । संक्षेपमें सत्याग्रहीके लक्षण इस प्रकार हैं ----
(१) हम स्वयं जिस बातको मानते या करते हों उसकी पूरी समझ होनी चाहिए । अपनी समझपर इतना विश्वास होना चाहिए कि दूसरेको स्पष्टता और दृढ़ताके साथ समझा सकें।
(२) अपनी मान्यताके विषय में हमारी समझ तथा हमारा विश्वास यथार्थ है, इसकी कसौटी यही है कि दूसरेको समझाते समय हमें तनिक भी आवेश या क्रोध न आवे । दूसरेको समझाते समय अपनी मान्यताकी विशेषताके साथ यदि
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