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धर्म और उसके ध्येयकी परीक्षा
परलोक-बाद तो नाम मात्र काही रहता है। इसका कारण पर-लोकवादको धर्मके ध्येय में स्थान देनेपर भी उसकी जो गैर-समझ रहती है, वह है । चार्वाककी गैरसमझ तो संकीण दृष्टितक ही है परन्तु पर-लोकवादीकी गैरसमझ उससे दुगुनी है । वह बोलता तो है दीर्घदृष्टि की तरह और व्यवहार करता है चार्वाक.. की तरह !-अत: एकमें अज्ञान है तो दूसरे में विपर्यास ।
विपर्यालके परिणाम इम विपर्यासले पर-लोकबादी स्वात्माके प्रति सचाईसे सोचने और सच्चा रहकर तदनुसार अपना जीवन बनानेकी जवाबदारीका तो पालन नहीं करता परन्तु जब कौटुम्बिक, सामाजिक वगैरह जबाबदारियाँ उपस्थित होती हैं तब वर्तमान जन्म क्षणभंगुर हैं -- यहाँ कोई किसीका नहीं है-सब स्वार्थी भरे हुए हैं, यह सब मेला बिखरनेवाला है, जो भाग्यमें लिखा होगा उसे कौन मिटा सकता है, अपना हित साधना अपने हाथमें है । यह हित पर-लोक सुधारनमें है और परलोक सुधारने के लिए इस जगतकी प्राप्त हुई सभी वस्तुएँ फेकने योग्य है । इस प्रकारकी विचार-धारामें पड़कर, पर-लोककी धुनमें वह मनुष्य इन जवाबदारियोंकी उपेक्षा करता है। इस प्रकारकी ऐकान्तिक धुनमें वह भूल जाता है कि उसके परलोकवाद के सिद्धान्तके अनुसार उसका वर्तमान जन्म भी तो परलोक ही है और उसकी अगली पोढ़ी भी परलोक है, प्रत्यक्ष उपस्थित अपने सिवायकी सृष्टि भी परलोकका ही एक भाग है। इस भूलके संस्कार भी कर्मवादके नियमानुसार उसके साथ जाएँगे। जब वह किसी दूसरे लोक में अवतरित होगा, या इसी लोकमें नयी पीढ़ीमें जन्म लेगा, तब उसका परलोक सुधारने और सारा वर्तमान फेंक देनेका संस्कार जागेगा और फिर वह यही कहेगा कि परलोक ही धर्मका ध्येय है। धर्म तो परलोक सुधारनेको कहता है, इसलिए ऐहिक सुधारना या ऐहिक जवाबदारियोंमें बँध जाना तो धर्मद्रोह है। ऐसा कहकर वह प्रथमकी अपेक्षासे परलोक किन्तु अभीकी अपेक्षासे वर्तमान, इस जन्मकी उपेक्षा करेगा और दूसरे ही परलोक और दूसरे ही जन्मको सुधारनेकी धुनमें पागल होकर धर्मका आश्रय लेगा। इस संस्कारका परिणाम यह होगा कि प्रथम माना हुआ परलोक
ही वर्तमान जन्म बनेगा और तब वह धर्मके परलोक सुधारनेके ध्येयको Jain Education International For Private & Personal Use Only
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