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धर्म और उसके ध्येयकी परीक्षा
सकते । ऐसी स्थितिमें परलोक सुधारनेको धर्मका ध्येय माननेकी जो प्रवृत्ति चली आई है, वह बराबर नहीं है, यह स्वीकार करना होगा । ___ तब प्रश्न होगा कि धर्मका ध्येय क्या होना चाहिए ? किस वस्तुको धर्मके ध्येयरूपसे सिद्धान्तमें, विचारमें, और वर्तनमें स्थान देनेसे धर्मकी सफलता और जीवनकी विशेष प्रगति साधी जा सकती है ? __इसका जवाब ऊपरके विवेचनमें ही मिल जाता है और वह यह कि प्रत्येकको अपने वैयक्तिक और सामूहिक कर्तव्यका ठीक भान, कर्तव्य के प्रति रही हुई जिम्मेवारीमें रस और उस रसको मूर्त करके दिखानेवाली पुरुषार्थकी जागृति, इसीको धर्मका ध्येय मानना चाहिए।
यदि उक्त तत्वोंको धर्मका ध्येय मानकर उनपर जोर दिया जाय, तो प्रजाका जीवन समग्र रूपमें बदल जाय । धर्म तात्त्विक हो या व्यावहारिक, यदि उक्त तत्त्व ही उसके ध्येय-रूपमें स्वीकृत किये जाय और प्रत्यक्ष सुखवादः या परलोकसुधारवादका स्थान गौण कर दिया जाय, तो मनुष्य चाहे जिस पक्षका हो वह नवजीवन बनानेमें किसी भी तरहकी विसंगतिके बिना अपना योगा देगा, और इस तरहका ध्येय स्वीकार किया जायगा तो जैन समाजकी भावी सन्तति सब तरहसे अपनी योग्यता दिखला सकेगी।
इस ध्येयवाला भावी जैन पहले अपना आत्मिक कर्तव्य समझकर उसमें रस लेगा। इससे वह अपनी बुद्धिकी विशुद्धि और विकासके लिए अपनेसे हो सकनेवाली सारी चेष्टा करेगा और अपने पुरुषार्थको जरा भी गुप्त न रखेगा। क्यों कि वह यह समझ लेगा कि बुद्धि और पुरुषार्थके द्रोहमें ही आत्मद्रोह और आत्मकर्तव्यका द्रोह है । वह कुटुम्बके प्रति अपने छोटे बड़े समग्र कर्तव्य और जबाबदारियाँ अदा करने में अपने जीवनकी सफलता समझेगा।
इस तरह उसके जीवनसे उसकी कुटुम्बरूपी घड़ी विना अनियमितताके बराबर चलती रहेगी। वह समाज और राष्ट्रके प्रति प्रत्येक जवाबदारीके पालनमें अपना महत्व मानेगा और इस लिए समाज और राष्ट्रके अभ्युदयके मार्गमें उमका जीवन बहुत मददगार होगा।
जैन समाजमें एकाश्रम संस्था अर्थात् त्यागाश्रम संस्थाके ऊपर ही मुख्य भार देनेके कारण अधिकारका विचार उपेक्षित रह जाता है और उससे जीवन में
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