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धर्म और समाज
अधिक संख्यक लोगों में इन मतभेदोंके पूरे जोश के साथ प्रवर्तित होते हुए भी सदा कुछ व्यक्ति इसे मिल जाते हैं जिनको ये मत-भेद स्पर्श ही नहीं कर सकते। इससे यह सोचना प्राप्त होता है कि ऐसी कौन-सी बात है कि जिसको लेकर ऐसा बहुव्यापी मत-भेद भो थोड़ेसे इने-गिने लोगोंको स्पर्श नहीं करता और जिम तत्वको लेकर इन लोगोंको मतमेद स्पर्श नहीं करता वह तत्व पा लेना क्य' दृरूले लोगों के लिए शक्य नहीं है ?
हमने ऊपर बतलाया है कि धर्म के दो स्वरूप है, पहला तात्त्विक जिसमें सामान्यतः क्रिसोका मतभेद नहीं होता, अर्थात् वह है सद्गुणात्मक । दूसरा व्यावहारिक जिसमें तरह तरहके मतभेद अनिवार्य होते हैं, अर्थात् वह है बाह्य प्रवृत्तिरून । जो तात्त्विक और व्यावहारिक धर्मके बीचके भेदको स्पष्ट रूपले समझते हैं, जो तात्त्विक और व्यावहारिक धर्मके संबंधके विषय में विचार करना जानते हैं, संक्षेपमें तात्त्विक और व्यावहारिक धर्मके उचित पृथक्करणकी और उसके बलाबलकी चाबी जिनको मिली है उनको व्यावहारिक धर्मके मत-भेद क्लेशवर्द्धक रूपमें स्पर्श नहीं कर सकते। इस प्रकारके पुरुष और स्त्रियाँ इतिहास में हुई हैं और आज भी हैं। इसका सार यह निकला कि अगर धर्मके विषय की सच्ची और स्पष्ट समझ हो. तो कोई भी मन-भेद क्लेशका कारण नहीं हो सकता। सच्ची समझ होना ही क्लेशवर्द्धक मत-भेदके निवारण का उपाय है और इस समझका तत्त्व, प्रयत्न किया जाय तो, मनुष्य जातिमें विस्तार किया जा सकता है। इस लिए ऐसी समझको प्राप्त करना और उसका पोषण करना इष्ट है । अब अपनेको यह देखना चाहिए कि तात्त्विक और व्यावहारिक धर्मके बीचमें क्या संबंध है ? __ शुद्ध वृत्ति और शुद्ध निष्ठा निर्विवाद रूपसे धर्म है जब कि बाह्य व्यवहारके धर्माधर्मस्वके विषय में मतभेद है । इसलिए बाह्य आचारों, व्यवहारों, नियमों और रीति-रिवाजोंकी धार्मिकता या अधार्मिकताकी कसौटी तात्त्विक धर्म ही हो सकता है।
शुद्धाशुद्धनिष्ठा और उसके दृष्टान्त जिन जिन प्रथाओं, रीति-रिवाजों और नियमोंकी उत्पत्ति शुद्ध निष्ठासे होती है उनको सामान्य रूपसे धर्म कहा जा सकता है और जो आचार शुद्धनिष्ठाजन्य
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