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धर्म और उसके ध्येयकी परीक्षा
एक भापका कपड़ा भी मैला, पुराना या जन्तुमय हो जानेपर बदलना पड़ता है या साफ करना पड़ता है । इसके अतिरिक्त बिना कपड़े के भी शरीर निरोग रह सकता है बल्कि इस स्थितिमें तो ज्यादा निरोगपना और स्वाभाविकपना शास्त्रमें कहा गया है । इससे विपरीत कपड़ोंका संभार तो आरोग्यका विनाशक और दूसरे कई तरीकों से नुकसानकारक भी सिद्ध हुआ है । गहनों का तो शरीररक्षा और पुष्टि के साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है। कपड़े और गहनोंको अपेक्षा जिस का आत्माके साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है
और जिसका सम्बन्ध अनिवार्य रीतिसे जीवनमें आवश्यक है, उस शरीरके विषयमें भी ध्यान खींचना जरूरी है । शरीरके अनेक अंगोंमें हृदय, -मस्तिष्क, और नाभि आदि ध्रुव अंग हैं । इनके अस्तित्वपर ही शरीरका
अस्तित्व है। इनमें कोई अंग गया कि जीवन समाप्त । परन्तु हाथ, पैर, कान, नाक, आदि जरूरी अंग होते हुए भी ध्रुव नहीं हैं - उनमें बिगाड़ या अनिवार्य दोष उत्पन्न होनेपर उनके काट देनेसे ही शरीर सुरक्षित रहता है। आत्मा, शरीर, उसके ध्रुव-अध्रुव अङ्ग, वस्त्र, अलंकार इन सबका पार• स्परिक क्या सम्बन्ध है, वे एक दूसरेसे कितने नजदीक अथवा कितने दूर हैं, कौन अनिवार्य रूपसे जीवन में जरूरी हैं और कौन नहीं, जो यह विचार कर सकता है उसको धर्म-तत्त्वकी आत्मा, उसके शरीर और उसके वस्त्रालंकाररूप बाह्य व्यवहारोंके वीचका पारस्परिक सम्बन्ध, उनका बलाबल और उनकी कीमत शायद ही समझानी पड़े।
धर्मनाशका भय इस समय यदि कोई धर्मके कपड़े और गहनेस्वरूप बाह्य व्यवहारोंको बदलने, उनमें कमी करने, सुधार करने और जो निकम्मे हों उनका विच्छेद कर देने की बात करता है, तो एक वर्ग बौखला उठता है कि यह तो देव, गुरु और धम तत्वके उच्छेद करने की बात है। इस वर्गकी बौखलाहट एक बालक और युवती की तरह है । बालकके शरीरसे मैले और नुकसानदेह कपड़े उतारते समय वह चिल्लाता है - अरे मुझे मार डाला।' सौन्दर्यको पुष्ट करनेके लिए • या परंपरासे चली आती हुई भावनाके कारण सुरक्षा-पूर्वक बढ़ाये हुए और सँभाल कर रखे हुए बालोंको जब उनकी जड़में कोई बड़ी भारी सड़न हो
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