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धर्म और उसके ध्येयकी परीक्षा
शिक्षा सूर्य के प्रकाश के समान है । दूसरी वस्तुओंका अंधकार दूर करनेसे ही इसे सन्तोष नहीं होता, यह तो अपने ऊपरके अंधकार को भी सहन नहीं कर सकती । सच्ची बात तो यह है कि शिक्षा अपने स्वरूप और अपने सभी अंगोंके संबंध में पैदा हुए भ्रम या अस्पष्टतायें नहीं सह सकती। अपनी इसी एक शक्तिके कारण यह दूसरे विषयोंपर भी प्रकाश डाल सकती है । कुशल चिकित्सक पहले अपने ही दर्दकी परीक्षा करता है और तभी वह दूसरे के.. रोगोंकी चिकित्सा अनुभवसिद्ध बलसे करता है । मैकालेके मिनट ( Minuteवक्तव्य ) के अनुसार हिन्दुस्तान में प्रचलित केवल क्लर्क उत्पन्न करनेवाली अंग्रेजी शिक्षाने पहले पहल अपनेसे ही सम्बद्ध भ्रान्तियों को समझने और उन्हें दूर करनेके लिए सिर ऊँचा किया । और साथ ही इसी शिक्षाने धर्म, इतिहास, समाज, राजनीति आदि दूसरे विषयोंपर भी नई रीतिसे प्रकाश डालना शुरू किया । जिस विषय की शिक्षा दी जाने लगती है उसी विषय की, उस शिक्षा के संस्पर्शसे विचारणा जागृत होनेके कारण, अनेक दृष्टियों से परीक्षा होने लगती है ।
धर्मका पिता, मित्र या उसकी प्रजा विचार ही है। विचार न हो तो धर्मकी उत्पत्ति ही संभव नहीं । धर्मके जीवन और प्रसारके साथ विचारका योग होता ही है । जो धर्म विचारोंको स्फुरित नहीं करता और उनका पोषण नहीं करता वह अपनी ही आत्माकी हत्या करता है । इसलिए धर्मके विषय में विचारणा या उसकी परीक्षा करना, उसको जीवन देनेके बराबर है । परीक्षाकी भी परीक्षा यदि हो, तो वह अंतमें लाभकारक ही होती है । परीक्षाको भी भय के बंधन संभव हैं । जहाँ स्वेच्छाचारी राजतंत्र हो और शिक्षासंबंधी मीमांसासे उस तंत्रको धक्का
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