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नीति, धर्म और समाज
चटीके प्रति सूक्ष्मतासे ध्यान दिया जाय तो प्रतीत होगा कि वह अकेली नहीं रह सकती। वह किसी के साहचर्यकी तलाश करती है । पर उसे चींटेका तो क्या विजातीय चींटीका भी सहचार अनुकूल नहीं जचता । वह सजातीयके सहचारमें ही मस्त रहती है। ऐसे क्षुद्र जन्तुको छोड़कर अब दूसरे बड़े जन्तु पक्षीकी ओर ध्यान दीजिए । मुगेसे वियुक्त मुर्गी मयूरके सहचारसे संतुष्ट नहीं होती। उसे भी स्वजातीयका ही साहचर्य चाहिए । एक बन्दर और एक हरिण ये दोनों स्वजातीय प्राणीके साथ रहकर जितनी प्रसन्नताका अनुभव करेंगे या अपने जीवनको दीर्घायु बना सकेंगे, उतनी मात्रामें चाहे जितनी सुखसामग्री मिलने पर भी विजातीय के सहचारमें प्रसन्न नहीं रह सकेंगे। मनुष्य जातिने जिस कुत्तको अपनाकर अपना वफादार सेवक और सहचारी बनाया है, वह भी दूसरे कुत्ते के अभावमें असन्तुष्ट ही रहेगा । यही कारण है कि वह दूसरे कुत्ते के प्रति ईर्षा रखनेपर भी और दम रेको देख कर प्रारंभमें उससे लड़कर भी अन्तमें उसके साथ एकरस होकर खिलवाड़ करने लग जाता है । सूक्ष्म जंतु, पक्षी और पशु जातिके इस नियमको हम मनुष्य जातिमें भी देखते हैं।
पक्षी या पशुको पालतू बनाकर मनुष्य जंगलमें अकेला रहनेका कितना भो अभ्यास क्यों न करे पर अन्तमें उसकी प्रकृति मनुष्य जातिके ही साहचर्यकी तलाश करती है । समान रहन-सहन, समान आदतें, समान भाषा और शरीरकी समान रचनाके कारण सजातीय साहचर्यकी तलाशकी वृत्ति हम जीवमात्रमें देखते हैं। फिर भी मनुष्य के सिवाय किसी सी जीववर्ग या देहधारी वर्गको हम समाजका नाम नहीं देते । वह वर्ग समुदाय या गण भले ही कहा जाय किन्तु समाज होनेकी पात्रता तो मनुष्य जातिमें ही है। और
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