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धर्म और पंथ
प्रथम अर्थात् धर्ममें अन्तर्दर्शन होता है । वह आत्माके अन्दरसे उत्पन्न होता है, वहीं स्थिर रहता है और मनुष्यको उसी ओर आकृष्ट करता है । जब कि दूसरे अर्थात् पंथमें बहिर्दर्शन होता है, वह बाह्य वातावरण तथा देखादेखीसे उत्पन्न होता है, इसलिए बाहरकी ओर आकृष्ट करता है और मनुष्यको बाहरकी तरफ देखनेमें उलझा रखता है। __ धर्म गुणजीवी और गुणावलम्बी है। वह आत्माके गुणोंपर रहता है । पंथ रूपजीवी और रूपावलम्बी है। उसका आधार बाह्य रूप रंग और ऊपरी आडम्बर है। वह वेश, कपड़ोंका रंग, पहननेकी रीति, पास रखनेके साधन तथा उपकरणों की ओर विशेष रुचि दिखलाता है तथा उन्हींका आग्रह करता है। __ धर्ममें एकता और अभेदके भाव उठते हैं और समानताकी तरंगें उछलती हैं । पंथमें भेद और विषमताकी दरारें पड़ती और बढ़ती जाती हैं। धर्ममें मनुष्य दूसरोंके साथ भेदभाव भूलकर अभेदकी ओर झुकता है, दूसरेके दुःखमें अपना सुख भूल जाता है, या यों कहना चाहिए कि उसके सुख-दुःख कोई अलग वस्तु नहीं रहते । दूसरोंके सुख-दुःख ही उसके सुख-दुःख बन जाते हैं । पंथमें मनुष्य अपनी वास्तविक अभेद-भूमिको भूलकर मेदकी तरफ अधिकाधिक झुकता जाता है । दूसरेका दुःख उसपर असर नहीं करता । अपने सुखके लिए वह लालायित रहता है। अथवा यों कहना चाहिए कि उस मनुष्यके सुख-दुःख दुनियाके सुख-दुःखोंसे सर्वथा अलग हो जाते हैं। इसमें मनुष्यको अपना और पराया ये दो शब्द पद पदपर याद आते हैं । धर्ममें स्वाभाविक नम्रता होनेके कारण मनुष्य अपनेको छोटा और हलका समझता
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