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प्रवचन-४९
जाने से साधु भी बन जाये, तो भी वह आत्मविशुद्धि नहीं कर सकता है। हालाँकि ऐसे दुराग्रही और स्वच्छंदी व्यक्ति को दीक्षा देने का तीर्थंकरों ने निषेध किया है, परन्तु अक्सर ऐसा देखा जाता है कि दीक्षा लेते समय ऐसा व्यक्ति परखा नहीं जाता है । बड़ा सीधा - सरल दिखाई देता है। बाद में अवसर आने पर पता लगता है कि 'यह महानुभाव तो अभिमान की मूर्ति है । ' इसलिए, आत्मविकास की प्राथमिक भूमिका में ही आन्तरिक शत्रु पर आंशिक विजय पाना आवश्यक बताया गया है। आन्तरिक शत्रु पर विजय पाये बिना इन्द्रियविजय नहीं पाई जा सकती है। जो मनुष्य इस बात की उपेक्षा कर, आगे-आगे की धर्माराधना करते हैं वे लोग कभी न कभी गिरते हैं, आचार से या विचार से भ्रष्ट हो जाते हैं ।
मान और मद आन्तरिक शत्रु हैं, यह बात, आत्मविकास की भावनावाले सभी लोगों को समझनी होगी । बाहुबली का अभिमान तीव्र नहीं था। जब ब्राह्मी और सुन्दरी ने आकर सांकेतिक शब्दों में समझाया, तो बाहुबली समझ गये । 'मेरी बहनों की बात सच्ची है! मैं मान के हाथी पर बैठा हूँ, मैं वीतराग नहीं बन सकता हूँ....।' बात मन में जँच गई और भगवान ऋषभदेव के पास जाने को कदम उठा लिए... कदम उठते ही कर्मबन्धन टूट गये । केवलज्ञान प्रकट हो गया ।
'भले ब्राह्मी-सुन्दरी कहें, मैं तो यहाँ से तब तक नहीं चलूँगा जब तक मुझे केवलज्ञान नहीं होगा । मैं अपने से छोटे भाइयों को वंदना नहीं कर सकता...।' यदि यह दुराग्रह बना रहता तो कभी केवलज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता था। से दूर रहो :
दुराग्रह
संसार-व्यवहार में भी किसी बात का दुराग्रह सज्जनों को शोभा नहीं देता है। आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में दुराग्रही - अभिमानी मनुष्य सफलता नहीं पा सकता है। छोटा बच्चा हो या बड़ा बूढ़ा हो, शिक्षित हो या मूर्ख हो, दुराग्रह नहीं चाहिए | जिद्दीपना नहीं चाहिए । किसी हितकारी व्यक्ति की बात मानने की योग्यता बनाये रखनी चाहिए । 'मैं किसी की बात नहीं सुनूँ, और मेरी बात सभी लोग सुनें- 'इस प्रकार की मनोवृत्ति बहुत विघातक बनती है। धर्मक्षेत्र में जिसको प्रवेश पाना है, धर्मतत्त्व को पाकर आत्मविशुद्धि करना है, उस व्यक्ति को दुराग्रह छोड़ देने चाहिए। यानी आन्तरिक शत्रु-मान को मिटा देना चाहिए। पहले ही मिटाना चाहिए, अन्यथा बहुत आगे बढ़ने के बाद यह आन्तरिक शत्रु दुःख देता है । पतन की गहरी खाई में पटक देता है ।
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