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प्रवचन-४९ होती है, उसके प्रति हीन भावना होती है। उच्च जाति का अभिमान, नीच जातिवालों के प्रति तिरस्कार करवाता है। उच्च कुल का अभिमान, नीच कुल में जन्मे हुए के प्रति धिक्कार करवाता है| रूप का अभिमान कुरूप के प्रति तिरस्कार करवाता है। बल का अभिमान निर्बल के प्रति हँसता है। श्रीमन्ताई का अभिमान गरीबी का उपहास करता है। बुद्धि का अभिमान बुद्धिहीनों के प्रति आक्रोश करता है। ज्ञान का गर्व अज्ञानी का तिरस्कार करवाता है। ___ मान और मद का भेद बराबर समझ लेना | मानी मनुष्य अपना दुराग्रह नहीं छोड़ता है और दूसरों की सुयोग्य बात नहीं सुनता है। मदान्ध मनुष्य अपने बल-कुल-ऐश्वर्य को लेकर अहंकार करता है और दूसरों के प्रति आक्रमक बनता है। मान और मद - दोनों आन्तरिक शत्रु हैं | जब जीवात्मा के स्वभाव के साथ ये मान और मद मिल जाते हैं तब जीवात्मा की दुर्दशा हो जाती है। क्या हुआ रावण का? : ___ अभिमानी मनुष्य कभी समझ भी लेता है कि 'मेरा यह आग्रह अच्छा नहीं है, फिर भी उसको छोड़ता नहीं है। अब तक मैंने जो बात पकड़ रखी है, अब उसे कैसे छोड़ दूं? यदि अब बात को छोड़ दूंगा तो दुनिया में मेरा उपहास होगा।' दूसरे समझदार लोग उसको समझाने का प्रयत्न करेंगे तो भी वह नहीं समझेगा।
रावण को खयाल तो आ ही गया था कि सीता को मेरे प्रति जरा भी स्नेह नहीं है, तो अब सीता से क्या स्नेह करना? उसने मेरा अपमान किया, मुझे धूत्कार दिया, इससे क्या प्रेम करना? परन्तु यदि इस समय, कि जब भीषण युद्ध चल रहा है, मेरा भाई और मेरे पुत्र राम के कैदी बने हुए हैं, तब यदि इस स्थिति में मैं सीता को वापस लौटाऊँगा तो दुनिया में मेरा उपहास होगा। दुनिया कहेगी : 'देखो, रावण ने पराजय से डर कर, सीता को वापस लौटा दिया!' नहीं, मैं सीता को इस समय तो वापस नहीं लौटाऊँगा। कल मैं युद्ध करूँगा, राम और लक्ष्मण को पराजित करके, बाँध कर सीता के पास लाऊँगा और राम से कहूँगा : 'ले जाओ तुम्हारी सीता को।' आत्मविशुद्धि में अभिमान अवरोधक :
विभीषण और मंत्रीमंडल ने रावण को समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, फिर भी रावण नहीं माना था। अपने दुराग्रह को छोड़ने के लिए वह तैयार नहीं था। इसको अभिमान कहते हैं। ऐसा अभिमानी मनुष्य, कभी वैराग्य हो
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