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भौगोलिक सामग्री
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थे। गाँवों में गाय, भैंस, पालने वाले भी बड़ी संख्या में रहते थे। बृहत्कल्पभाष्य में ऐसे गाँवों को 'घोष' कहा गया है।६० प्रस्तुत ग्रंथ में सोलह प्रकार की वस्तियों का उल्लेख मिलता है यथा- ग्राम, नगर, खेट, कर्बट, मडम्ब, पत्तन, द्रोणमुख, आश्रम, पुटभेदन, घोष, निगम, राजधानी, निवेश, सम्बाध, अंशिका, आकर। से गामंसि वा नगरंसि वा खेडंसि वा, कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा आगरंसि वा दोणमुहंसि वा निगमंसि वा, रायहाणिंसि वा आसमंसि वा निवेसंसिवा संबाहंसि वा घोसंसि वा अंसियंसि वा, पुडभेयणंसि संकरंसि वा सपरिक्खेवंसि अबाहिरियंसि कप्पइ निग्गंथाणं हेमंतगिम्हासु एगं मासं वत्थए।।६१
इनका विस्तृत विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ के धार्मिक जीवन नामक अध्याय में किया गया है। कुछ गाँव जंगल या पहाड़ी के आस-पास बनाये जाते थे। वहाँ पर कृषक अपना अनाज एकत्र करके रखते थे। ऐसे गाँवों को 'सम्बाध' या 'संवाह कहा जाता था।६२ कुछ गाँवों के चारों ओर मिट्टी की प्राचीर बनाई जाती थी। ऐसे गाँवों को (खेट) कहा जाता था। सुरक्षा और सुविधा के लिए कुछ गाँवों को एक केन्द्रीय गाँव बनाया जाता था जो नगर से छोटा और साधारण गाँव से बड़ा होता था और जिसके चारों ओर मिट्टी का परकोटा बना होता था। ऐसे गाँव को 'कर्बट' कहा जाता था।६३ कौटिल्य ने दो सौ गांवों के बीच एक कर्बट बनाने के लिए कहा है। गांवों में रहने वालों की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखा जाता था। गाँव प्रायः आत्मनिर्भर होते थे।६४ बृहत्कल्पभाष्य में आदर्श गाँव की विशेषता बतायी गयी है- जहाँ पानी के लिए कुआँ हो, खेलने के लिए मैदान हो, पशुओं के लिए चारागाह हो, वन प्रदेश निकट हो, बच्चों के खेलने के लिए मैदान हो और दासियों को घूमने के लिए स्थान हो। प्रत्येक गाँव की अपनी सीमा होती थी।६५
विवक्षित नामक ग्राम के पास पूर्व दिशा में मनाये जाने वाले उत्सव को पुरः संखडि और पश्चिम दिशा में मनाये जाने वाले उत्सव को पश्चिम संखडि कहा जाता था।६६ सम्मेलन अथवा गोष्ठी में अपने सम्बन्धियों एवं मित्रों को भोजन के लिए निमंत्रित किया जाता था। ऐसे समय गाँव के अनेक लोग इकट्ठे होते, तथा भोजन आदि करते थे।६७
पर्वत
उज्जयन्त
द्वारका के उत्तर-पूर्व में रैवतक पर्वत था जिसे उर्जयन्त भी कहते थे। रुद्रदामन और स्कन्दगुप्त के गिरिनार शिलालेखों में इसका उल्लेख है। यहाँ एक