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आर्थिक जीवन
संघ, श्रेणी, पूग और निकाय जैसे संगठनों में संगठित थे।१८० 'वसुदेवहिण्डी' से पता चलता है कि कोवकास शिल्प सीखने के लिये यवनदेश गया था और वहाँ के आचार्य से सब प्रकार का काष्ठकर्म सीखकर वह ताम्रलिप्त आया था।१८१ बृहत्कल्पभाष्य में इन शालाओं के सम्बन्ध में पता चलता है। लोहारों की शाला 'कर्मारशाला' 'समर' और 'आयस' कहा जाता था। तन्तुवाय की शाला को 'नतकशाला' कहा जाता था और स्वर्णकार की शाला को कलादशाला कहा जाता
था।१८२
मुद्राएँ
कीमतें रुपये-पैसे के रूप में निर्धारित होती थीं। रुपया-पैसा भारत में बहुत प्राचीन काल से विनिमय का माध्यम था। 'बृहत्कल्पभाष्य' में कई प्रकार के सिक्कों का वर्णन मिलता है। 'बृहत्कल्पभाष्य' में द्वीप (सौराष्ट्र के दक्षिण में एक योजन चलने पर समुद्र में स्थित) के दो साभरक को उत्तरापथ के एक रुप्यक के बराबर, उत्तरापथ के दो रुप्यक को पाटलिपुत्र के एक रुप्यक के बराबर, दक्षिणापथ के दो रुप्यक को कांचीपुरी के एक नेलक के बराबर, तथा कांचीपुरी के दो नेलक को कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) के एक नेलक के बराबर कहा गया है।१८३ तीतर एक कर्षापण में मिल जाता था। गाय का मूल्य ५०० सिक्के तथा कम्बलों का मूल्य १८ रुप्यक से लगाकर एक लाख रुप्यक तक था।१८४ 'बृहत्कल्पभाष्य' में स्वर्ण, केवडिक, रजत, ताम्र, रूवग प्रकार के सिक्कों का वर्णन मिलता है।१८५ केवडिक प्रकार का सिक्का
स्वर्ण सिक्कों के साथ ही केवडिक (केवडिए) नामक सिक्कों का भी उल्लेख है। 'निशीथचूर्णी में भी केवडिय नामक सिक्के का उल्लेख हुआ है।१८६ लेकिन इस सिक्के के बारे में कोई ठोस जानकारी प्राप्त नहीं होती है। रूवग प्रकार का रजत सिक्का
चाँदी द्वारा निर्मित सिक्कों में 'रूवग या रुप्यक' उस समय सर्वाधिक प्रचलित सिक्का था। विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित रूवग भिन्न-भिन्न नाम वाले तथा मूल्यक्षमता वाले थे। सौराष्ट्र और दक्षिणापथ में प्रचलित रूवग को 'साभरग' कहा जाता था। उत्तरापथ के रूवग को 'उत्तरपहगा' और दक्षिणापथ के रूवग को 'दक्षिणपहगा' तथा कांचीपुर के रूवग को 'नेलक' कहा जाता था। कुसुमपुर तथा पाटलिपुत्र में प्रचलित रूवग को ‘पाटलिपुत्तगा' कहा जाता था।२८७