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१०२ बृहत्कल्पसूत्रभाष्य : एक सांस्कृतिक अध्ययन राजा आदि अलंकृत व्यक्तियों को देखने से अनेक दोषों का उद्भव होता है। यदि किसी कारण से इस प्रकार के उपाश्रय में रहना ही पड़े तो उसके लिए आचार्य ने विविध यातनाओं का विधान भी किया है।४९
इसी प्रकार वर्षा ऋतु के चार महीनों को छोड़कर ग्राम, नगर, खेत, कर्बट, मडम्ब, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, घोष, अंशिका
और पुटभेदन में एक माह से अधिक न रहने का श्रमण-श्रमणियों को निर्देश दिया गया है। श्रमणियों को बिना द्वार के खुले उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए। कभी द्वारयुक्त उपाश्रय अप्राप्त हो तो खुले उपाश्रय में परदा लगाकर रहने का विधान किया गया है।५° श्रमणी के बजाय कोई अन्य व्यक्ति उपाश्रय में न घुस जाए इसके लिए उसके परीक्षा करने की विधि, प्रतिहारसाध्वी द्वारा उपाश्रय के द्वार की रक्षा, शयन सम्बन्धी यतनाएँ, रात्रि के समय कोई मनुष्य उपाश्रय में घुस जाए तो उसे बाहर निकालने की विधि, विहार आदि के समय मार्ग में आने वाले गाँवों में सुरक्षित द्वार वाला उपाश्रय न मिले तथा अनपेक्षित भयप्रद घटना घट जाए तो तरुण और वृद्ध साध्वियों को किस प्रकार उसका सामना करना चाहिए, इसका निर्देश है।५१
साधु बिना दरवाजे के उपाश्रय में रह सकते हैं। उन्हें उपाश्रय का द्वार बन्द नहीं करना चाहिए किन्तु अपवादरूप वे वैसा कर सकते हैं।५२ श्रमणियों के लिए घटीमात्रक (घड़ा) रखना व उसका उपयोग करना विहित है किन्तु श्रमणों के लिए घटीमात्रक रखना अथवा उसका उपयोग करना निषिद्ध है। घटीमात्रक रखने से साधुओं को दोष लगते हैं। अपवादरूप में उनके लिए घटीमात्रक रखना वर्जित नहीं है। श्रमण-श्रमणियाँ विशेष कारणों से घटीमात्रक रखते हैं व उसका प्रयोग करते हैं। घटीमात्रक पास न होने की अवस्था में उन्हें विविध यातनाओं का सेवन करना पड़ता है।५३ जिस उपाश्रय के समीप गृहस्थ रहते हों वहाँ निर्ग्रन्थियों का निवास विहित है।५४
निर्ग्रन्थों को निर्ग्रन्थियों के और निर्ग्रन्थियों को निर्ग्रन्थ के उपाश्रय में शयन, आहार, विहार, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि करना वर्जित माना गया है। किसी कारण से एक-दूसरे के उपाश्रय में प्रवेश करने का प्रसंग उपस्थित होने पर एतद्विषयक आज्ञा विधि और कारणों का भी उल्लेख किया गया है।५५
साधु-साध्वियों को चित्रकर्म वाले उपाश्रय में न ठहरने का विधान किया गया है। इस विषय का विवेचन करते हुए भाष्यकार ने निर्दोष और सदोष चित्रकर्म