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उपसंहार
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उन्हें इस बात का ज्ञान था कि कौन सी भूमि उपजाऊ है और कौन सी अनुपजाऊ। खेतों में जुताई के लिए हल व बैल की सहायता ली जाती थी। सिंचाई वर्षा के साथ-साथ सेतु और केतु साधनों पर निर्भर थी। अन्नों के भण्डार की उचित व्यवस्था थी।
पशुओं से कृषि कार्य तो होता ही था इसके अतिरिक्त उनसे दुग्ध, मांस, ऊन तथा चमड़ा प्राप्त होता था। ये युद्ध और यातायात में भी सहायक होते थे। उनके बाल से बने रजोहरण और कम्बल जैन साधु-साध्वियाँ उपयोग में लाते थे। दुष्काल में जैन साधुओं को मांस खाने का भी विधान किया गया है।
वाणिज्य एवं व्यापार समृद्ध था। व्यापारियों को सार्थ कहा जाता था जो देशी और विदेशी दोनों प्रकार की मंडियों में व्यापार करते थे। उनके नेता ज्येष्ठ व्यापारी सार्थवाह कहलाता था। व्यापारिक मार्ग में सुरक्षा की समुचित व्यवस्था थी। पाँच प्रकार के सार्थों का उल्लेख मिलता है। उस समय व्यापारिक समाज में ऐसे साहसी सार्थवाह विद्यमान थे जिन्होंने अनेक बार विदेश यात्रा करके अपने व्यापार को आगे बढ़ाया था। उस समय सार्थवाहों के साथ यात्रा करना काफी सुरक्षित समझा जाता था। इसीलिए जैन साधु-साध्वियों को सार्थवाहों के साथ यात्रा करने का विधान किया गया है।
___ उद्योग-धन्धों का समाज की आर्थिक व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान था। वस्त्र उद्योग उस समय समुन्नत अवस्था में था। सूती, रेशमी, ऊनी, चर्म-निर्मित आदि अनेक प्रकार के वस्त्रों का निर्माण प्रचलित था। कपड़ों की रंगाई भी की जाती थी। उद्योग-धन्धे व्यापारियों द्वारा चलाये जाते थे जो अलग-अलग श्रेणी
और संगठनों से जुड़े होते थे। सामान लाने ले जाने के लिए जल और स्थल दोनों मार्गों का प्रयोग किया जाता था।
तत्कालीन राजनैतिक व्यवस्था में राजतन्त्रात्मक प्रणाली प्रचलित थी। गणतंत्रात्मक व्यवस्था का नामोल्लेख तक नहीं हुआ है। राजतंत्रात्मक व्यवस्था ये अराजक, जुवराय, वैराज्य और द्वैराज्य ये चार प्रकार के राज्य बतलाये गये हैं। स्त्री, जुआ, सुरा और आखेट में लिप्त राजा को राज्य चलाने के लिए अयोग्य कहा गया है। राज्य का उत्तराधिकारी उसका पुत्र ही होता था परन्तु पुत्रविहीन राजा की मृत्यु हो जाने पर मंत्रियों की सलाह से स्वस्थ जैन साधुओं द्वारा पुत्र उत्पन्न कराये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है। राज्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए युवराज के अतिरिक्त पूरन्ति, छत्तन्ति, बुद्धि, मंत्री और रहस्सिया आदि