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उपसंहार
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कला एवं स्थापत्य नामक सातवें अध्याय से ज्ञात होता है कि उस समय तत्कालीन समाज में विभिन्न प्रकार की कलाओं को सीखने-सिखाने की व्यवस्था थी। इनके अन्तर्गत चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला और संगीत-कला को महत्त्वपूर्ण स्थान मिला हुआ था। उस समय मुख्यतः दो प्रकार के चित्र बनाये जाते थे- सदोष और निर्दोष। सदोष चित्रकला में मानव आकृतियाँ होती थीं जब कि निर्दोष चित्रकला में नदी पहाड़, वन आदि का चित्रण होता था। मूर्तिकला के अंतर्गत स्कन्द (कार्तिकेय), मुकुन्द (विष्णु) और शिव की काष्ठ प्रतिमाओं का उल्लेख किया गया है। वास्तुकला के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के रक्षा प्राचीरों का उल्लेख मिलता है। उनके चार प्रकार भी बतलाये गये हैं- पाषाण, इष्टिका, मृत्तिका और काष्ठ। संगीत कला के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के वाद्य-यन्त्रों का उल्लेख मिलता है।
इस प्रकार बृहत्कल्पभाष्य जैन श्रमणाचार का एक उत्कृष्ट ग्रन्थ है। जो सांस्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। श्रमण आचार के विभिन्न पक्षों को प्रस्तुत करते हुए यह ग्रन्थ तत्कालीन, भौगोलिक, राजनीतिक, आर्थिक धार्मिक एवं सांस्कृतिक प्रदेयों का भी सविस्तार वर्णन करता है जो कथ्य और तथ्य की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। अपने कथन के समर्थन में भाष्यकार ने समसामयिक आचार्यों एवं उनकी कृतियों का बड़े सम्मान के साथ निवेश किया है तथा अपनी समीक्षात्मक एवं आलोचनात्मक दृष्टि एवं सूझ-बूझ का परिचय दिया है।