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धार्मिक जीवन
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का स्वरूप, आचार्य, उपाध्याय आदि की दृष्टि से चित्रकर्म वाले उपाश्रय में रहने से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त, आपवादिक रूप से चित्रकर्मयुक्त (सचित्र) उपाश्रय में रहना पड़े तो उसके लिए विविध यातनाएँ आदि बातों का स्पष्टीकरण भी किया है।५६
श्रमण-श्रमणियों को सागारिक के सम्बन्ध वाले उपाश्रयों,५७ गृहपति निवास के मध्य स्थित उपाश्रयों और जिन उपाश्रयों में सचेतन धान्य बिखरे हों उनमें तथा जहाँ कुराविकटकुंभ, शीतोदकविकटकुंभ, ज्योति, दीपक, पिंड, दुग्ध, नवनीत आदि हों९ उनमें रहने का निषेध किया गया है। दिनचर्या
उत्तराध्ययनसूत्र में जैन भिक्षु-भिक्षुणियों की दिनचर्या का विस्तार से वर्णन किया गया है। दिन और रात को चार भागों में विभाजित कर उनका कार्यक्रम निश्चित किया गया था और उसी के अनुसार उन्हें जीवन व्यतीत करने का निर्देश दिया गया था। दिन के चार भागों में प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में ध्यान, तृतीय प्रहर में भिक्षा-गवेषणा एवं भोजन और चतुर्थ प्रहर में स्वाध्याय करने का विधान था। दिन के समान रात्रि के भी चार विभाग किये गये थे रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में ध्यान, तृतीय प्रहर में शयन तथा चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्याय करने का विधान था। इस प्रकार दिन-रात की चर्या में स्वाध्याय पर सबसे अधिक बल दिया गया है। उपाश्रयों में अध्ययन का कार्य उपाध्याय एवं उपाध्याया द्वारा सम्पन्न किया जाता था। जैन साध्वियों की शिक्षा उपाध्याया द्वारा सम्पन्न की जाती थी। वे श्रमण-श्रमणियों को आगम साहित्य, व्याकरण, हेतुशास्त्र, दर्शनशास्त्र, निमित्तशास्त्र आदि की शिक्षा देते थे।६१ अध्ययन को रोचक एवं बोधगम्य बनाने के लिए कथा-कहानियों, गीतों, गाथाओं आदि के उदाहरण भी प्रस्तुत किये जाते थे।६२ किसी दार्शनिक विषय पर जैन श्रमणों एवं अन्य मतावम्बलियों से वाद-विवाद प्रतियोगिता भी होती थी।६३ साधु को अध्ययन के लिए अन्यतीर्थिकों के गणों में जाने का उल्लेख है जो पुनः अपने गण में आकर वादकुशल परिषध का समायोजन करता है तथा परतीर्थिकों को निरुत्तर करता है।६४ विहार-यात्रा
__ वर्षाकाल के चार महीने छोड़कर शेष आठ महीनों (ग्रीष्म तथा हेमन्त ऋतु में) में श्रमण-श्रमणियों को एक ग्राम से दूसरे ग्राम में (गामाणुगाम) विचरण