________________
धार्मिक जीवन
१०९
ने अलंकारों से सुशोभित अपनी एक अंगुली भरत को दे दिया। वह जगतरूपी मंदिर के लिए दीपक के समान थी। राजा भरत ने अयोध्या में उस अंगुली पर जो महोत्सव मनाया वह 'इन्द्रमहोत्सव' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस कथा का उल्लेख आवश्यकचूर्णि१०० और वसुदेवहिण्डी०१ में भी मिलता है। यक्षमह
बृहत्कल्पभाष्य में अन्य देवताओं की भाँति यक्ष देव की पूजा का वर्णन मिलता है। कितनी ही बार जैन साधु और साध्वियों को यक्ष से अनिष्ट हो जाने पर किसी मांत्रिक आदि के पास जाकर चिकित्सा करानी पड़ती थी।१०२ प्रश्न करने पर घंटिक यक्ष उसका उत्तर कान में चुपके से फुसफुसाता था।०३ कुछ यक्ष बहुत नीच प्रकृति के होते थे। बृहत्कल्पभाष्य में उल्लेख है कि एक यक्ष जैन साधुओं को रात में खाना खिलाकर उनका व्रतभंग कर संतुष्ट होता था।१०४ उनका निवास उत्तर और पूर्व दिशा में बतलाया गया है।१०५ यक्षों की तरह यक्षिणियाँ (शाकिनियां) भी अनिष्टकारी होती थीं।२०६
___ इनकी सर्वत्र पूजा होती थी और उनके सम्मान में उत्सव मनाये जाते थे। वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार बीर-ब्रह्म के रूप में यक्ष की पूजा आधुनिक काल में बंगाल से गुजरात तक और हिमालय से कन्याकुमारी तक प्रचलित है।०७ 'निशीथचूर्णि' में उल्लेख है कि यक्ष प्रसन्न होने पर लाभ तथा अप्रसन्न होने पर हानि भी पहुँचाते थे।१०८
समिल्ल नामक नगर के वाह्य उद्यान में सभा से युक्त एक देवकुलिका में मणिभद्र यक्ष का आयतन था। एक बार इस नगर में शीतला का प्रकोप होने पर वे अष्टमी आदि के दिन उद्यापनिका किए। कुछ समय बाद रोग शान्त हो गया। देवशर्मा नामक एक ब्राह्मण को वेतन देकर पूजा करने के लिए रख दिया गया और वह अष्टमी आदि के दिन वहाँ की यज्ञ-सभा को लीप-पोतकर साफ रखने लगा।१०९
व्यंतरमह
बृहत्कल्पभाष्य में व्यंतर देव की पूजा का उल्लेख प्राप्त होता है।११० नया मकान बनकर तैयार होने पर व्यंतरी की पूजा की जाती थी।१११ 'निशीथचर्णि में व्यंतर देव का उल्लेख किया गया है जिन्हें, यज्ञ, गुह्यक आदि की श्रेणी में गिना जाता है। अनेक अवसरों पर व्यंतर देव को प्रसन्न करने के लिये सुबह,