Book Title: Bruhat Kalpsutra Bhashya Ek Sanskritik Adhyayan
Author(s): Mahendrapratap Sinh
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 109
________________ १०० बृहत्कल्पसूत्रभाष्य : एक सांस्कृतिक अध्ययन (१) उग्गहणन्तगं, (२) उग्गहपट्टगं। 'बृहत्कल्पभाष्य तथा ओघनियुक्ति' भिक्षुणी के लिए ग्यारह वस्त्रों५ का विधान करते हैं जिनमें छः शरीर के निचले हिस्से को ढंकने के लिए पहने जाते थे। भिक्षुणियों के लिए प्रथम समवसरणकाल (अर्थात् आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा से कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा तक) में वस्त्र ग्रहण करना वर्जित था। वे द्वितीय समवसरणकाल (अर्थात् मार्ग-शीर्ष कृष्णा प्रतिपदा से आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा तक) में ही वस्त्र (या अन्य उपकरण) ग्रहण कर सकती थीं।२६ स्पष्ट है कि भिक्षुभिक्षुणियों को वर्षाकाल में वस्त्र ग्रहण करना निषिद्ध था। भिक्षुणी को रात्रि में या सन्ध्याकाल में वस्त्र की गवेषणा करने का निषेध किया गया था, भले ही वस्त्र को धोकर, रंगकर या मुलायम बनाकर रखा गया हो।२७ भिक्षुणी गृहस्थों से वस्त्र प्राप्त करने में अत्यन्त सतर्कता का पालन करती थी। वह दाता के मनोभावों का सूक्ष्मता से अध्ययन कर ही वस्त्र ग्रहण करती थी। यदि कोई गृहस्थ वस्त्र देने की इच्छा प्रकट करे, तो भिक्षुणी को यह निर्देश दिया गया था कि वह सागरकृत करके ही वस्त्र ले (सागरकडं गहाय) तथा प्रवर्तिनी की अनुमति मिलने पर ही उसे उपयोग में लाये२८ अर्थात् यदि गृहस्वामी वस्त्र-पात्र दे तो साध्वी को यह कहकर लेना चाहिए कि आचार्य इसे रखेंगे अथवा मुझे या अन्य साध्वी को देंगे तो रखा जायेगा अन्यथा ये वस्त्रपात्र लौटा दिये जायेंगे। भाष्यकार के अनुसार साध्वी किसी भी गृहस्थ से स्वयं वस्त्र न ले, अपितु उसके वस्त्र की आवश्यकता की पूर्ति आचार्य, उपाध्याय अथवा प्रवर्तिनी करें। वे स्वयं गृहस्थ के यहाँ से वस्त्र लायें और सम्यक् परीक्षा के पश्चात् साध्वी को उपयोग करने के लिए दें।२९ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को वस्त्र की चिलिमिलिका-परदा रखने और उसका प्रयोग करने का विधान किया गया है।३० चिलिमिलिका के स्वरूप वर्णन के लिए भाष्यकारों ने उसे पाँच प्रकार के बताये हैं- सूत्रमयी सूत से, रज्जुमयी रस्सी से, वल्कलमयी-छाल से, दण्डकमयी शालाकाओं से और कटकमयी चिलमिलिका बाँस से बनी होती थी।३१ ।। श्रमण-श्रमणियों को रात्रि में वस्त्र ग्रहण करने का निषेध था। इसी प्रकार रंगे हुए कपड़े (कृत्स्नवस्त्र)३३ और बिना फाड़े हुए वस्त्र (अभिन्नवस्त्र)३४ तथा सलोमचर्म३५ ग्रहण करना निषिद्ध था। जैन साधु-साध्वियों को वस्त्रों के अतिरिक्त निम्न उपकरणों को भी रखने का विधान किया गया है- पात्र, पात्रबंध, पात्रस्थापन, पात्रकेसरिका, मात्रक और कमठक।३६ इसके अतिरिक्त उन्हें सूई, नखहरणी, कर्णशोधनी, दन्तशोधनी आदि

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