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बृहत्कल्पसूत्रभाष्य : एक सांस्कृतिक अध्ययन
है कि उस समय वास्तु-निर्माण का कार्य काफी उन्नत था। वास्तु उद्योग ने इतनी उन्नति कर ली थी कि वातानुकूल गृहों का भी निर्माण होता था।१७१ नगरों में चौड़ी सड़कें और उनको जोड़ने वाली छोटी-छोटी वीथियाँ बनाई जाती थीं। जैन ग्रन्थों में वास्तु विशेषज्ञों के नाम आये हैं जो राजमहल, भवन, सभामण्डप, तृणकुटीर, साधारण घर, गुफा, बाजार, देवालय, प्याऊ, आश्रम, भूमिगृह, पुष्करिणी, बावड़ी, स्तूप आदि बनाते थे।७२ मद्य उद्योग
'बृहत्कल्पभाष्य' में विभिन्न वस्तुओं से मदिरा निर्माण किये जाने का प्रमाण मिलता है। इसमें गुड़ से बनायी जाने वाली मदिरा को 'गौड़ी' चावल आदि से बनायी जाने वाली मदिरा को 'पेष्टी' बाँस के अंकुर (करीलों) से बनायी गयी मदिरा को 'वशीण' तथा फलों से बनायी गयी मदिरा को ‘फलसुराण' कहा जाता
है।१७३
कुटीर उद्योग
उपर्युक्त उद्योगों के अतिरिक्त कुटीर उद्योग भी प्रचलित थे। ऊन, मुंज, ऊँट के बाल, सन आदि के रोयें से साधुओं के लिए 'रजोहरण' बनाये जाते थे।१७४
काष्ठकर्म और पुस्तकर्म से बनाई गई प्रतिमायें जघन्य, हाथी दाँत से बनायी हुई मध्यम और मणियों से बनाई हुई पुत्तलिकाएँ उत्तम मानी जाती थीं।१७५ गृहनिर्माण कला काफी विकसित प्रतीत होती है क्योंकि राजगीर और बढ़ई के काम
को मुख्य धन्धों में गिना गया है। मकानों, प्रासादों, तलघरों और मंदिरों की नींव रखने के लिये अनेक राजगीर और बढ़ई काम करते थे।१७६ मकान बनाने के लिए ईंट (इट्टिका)१७७, मिट्टी (पुढ़वी), शर्करा, (सक्करा), बालू (बालुया), और (उपल)१७८ आदि की आवश्यकता पड़ती थी। रंग-उद्योग
'बृहत्कल्पभाष्य' में सादे और रंगे हुये वस्त्रों का उल्लेख हुआ है और उसी जगह कृष्ण, नील, लोहित, पीत और शुक्ल रंगों का वर्णन भी किया गया है जिससे प्रतीत होता है कि रंगाई का काम विधिवत होता था।१७९ औद्योगिक श्रम
'बृहत्कल्पभाष्य' से पता चलता है कि प्रायः सभी प्रकार के शिल्पी अपनेअपने व्यवसाय के संरक्षण एवं प्रवर्धन के प्रति सचेष्ट थे। इसी कारण वे 'निगम',