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बृहत्कल्पसूत्रभाष्य : एक सांस्कृतिक अध्ययन
तक पैदल सैनिकों की अधिकता बनी रही। यद्यपि जैन ग्रन्थों में पैदल सेना को सेना के वरीयता क्रम में चतुर्थ स्थान प्रदान किया गया है तथापि इसके महत्त्व को नकारा नहीं गया है। बृहत्कल्पभाष्य में इन सैनिकों को चारभड कहा गया है।८ वे विभिन्न अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित और रणकौशल में प्रवीण होते रहे होंगे लेकिन इस संबंध में हमें कोई सूचना नहीं मिलती है। युद्ध उस समय भी अवश्यम्भावी होता था। इसीलिए नगर या दुर्ग की सुरक्षा के लिए उसके चारों तरफ मजबूत प्रकार एवं खाट का निर्माण किया जाता था।७९ संग्राम यानी रणभूमि में भेरियों की आवाज से योद्धाओं को प्रोत्साहन मिलता था। बृहत्कल्पभाष्य में वासुदेवश्रीकृष्ण की कौमुदिकी, संग्रामिकी, दुर्भूतिका और अशिवोपशामिनी नाम की चार भेरियों का उल्लेख हुआ है। चूँकि युद्ध से अव्यवस्था फैल जाती है अतः जैन साधुओं को सेना के स्कन्धावार को दूर से ही देखकर अन्यत्र गमन कर जाने का निर्देश दिया गया है।८१ राजस्व व्यवस्था
बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार अर्थ यानी कोश के नष्ट हो जाने से राजा भी नष्ट हो जाता है।८२ आवश्यकचूर्णि में भी कहा गया है कि जिस राजा का कोश क्षीण हो जाता है उसका राज्य नष्ट हो जाता है।८३ निशीथचूर्णि में भी कहा गया है कि जो राजा अर्थ उत्पत्ति के साधनों का संरक्षण नहीं करता, धनाभाव के कारण उसका कोश क्षीण हो जाता है अर्थात् वह राजा नष्ट हो जाता है।८४
कर-व्यवस्था
लगान और कर के द्वारा राज्य का खर्च चलता था। व्यवहारभाष्य में साधारणतया पैदावार के दसवें हिस्से को कानूनी टैक्स स्वीकार किया गया है। खेत और गाय आदि के अतिरिक्त प्रत्येक घर से भी टैक्स वसूल किया जाता था। राजगृह में किसी वणिक् ने पक्की ईटों का घर बनवाया, लेकिन गृहनिर्माण पूरा होते ही वणिक् की मृत्यु हो गयी। वणिक् के पुत्र बड़ी मुश्किल से अपनी आजीविका चला पाते थे। लेकिन नियमानुसार उन्हें राजा को एक रुपया कर देना आवश्यक था। ऐसी हालत में कर देने के भय से वे अपने घर के पास एक झोपड़ी बनाकर रहने लगे, अपना घर उन्होंने जैन श्रमणों को रहने के लिए दे दिया था।
जैनसूत्रों में अठारह प्रकार के करों का उल्लेख मिलता है- गोकर (गाय बेचकर दिया जाने वाला कर), महिषकर, उष्ट्रकर, पशुकर, छगली कर (बकरा),