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राजनैतिक जीवन
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न्याय व्यवस्था
देश में शान्ति और सुरक्षा की स्थापना के लिए न्याय की समुचित व्यवस्था का होना आवश्यक है। बृहत्कल्पभाष्य से उस समय की न्याय व्यवस्था के संबंध में कुछ ही सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। वाद को व्यवहार कहा गया है।३१ राज्यकुल में उत्पन्न कारणिक नामक राज्याधिकारी न्यायालय में वादों-प्रतिवादों के आधार धर्माधिकारी पर अभियोगों का न्याय करता था।३२ बृहत्कल्पभाष्य से ज्ञात होता है कि चोरी और लड़ाई-झगड़े के अभियोग राज्यकुल में जाते थे।३३ वसुदेबहिण्डी में ही एक ग्रामीण का उल्लेख हुआ है जो रात को चोरी से अपने खेतों में पानी दे देता था। उसके विरुद्ध साक्ष्य मिलने पर और दोष सिद्ध हो जाने पर उसे दण्डित किया गया था।३४ व्यवहारभाष्य में न्यायाधीश के लिए रूपयक्ष शब्द का प्रयोग हुआ है। रूपयक्ष को भंभीय, आसुरूक्ख, माठर के नीतिशास्त्र और कौंडिन्य की दण्डनीति में कुशल होना चाहिए, उसे लालच नहीं करनी चाहिए और निर्णय देते समय निष्पक्ष रहना चाहिए।३५
मनुस्मृति में वाद के अठारह कारण बताये गये हैं
१. ऋणवसूली करना, २. किसी के पास गिरवी रखना, ३. मालिकाना हक के बिना किसी वस्तु का विक्रय करना, ४. साझे का लेन देन होना, ५. दान में दी हुयी वस्तु को वापस लेना, ६. वेतन न देना, ७. प्रतिमा भंग करना, ८. खरीद-बिक्री में किसी बात को लेकर मतभेद हो जाना, ९. स्वामी और पशुपालकों में विवाद हो जाना, १०. सीमा का विवाद होना, ११. मारपीट करना, १२. चोरी करना, १३. जबर्दस्ती किसी की चीज ले लेना, १४. पराये पुरुष के साथ स्त्री का संपर्क होना, १६. पैतृक सम्पत्ति का बंटवारा होना, १७. जुआ खेलना
और १८. पशु-पक्षियों को लड़ाना,२६ इनमें से कुछ कारणों के प्रमाण प्रस्तुत ग्रन्थ में भी प्राप्त होते हैं।
बृहत्कल्पभाष्य में उल्लेख है कि कभी-कभी रात के समय वेश्याएँ जैनश्रमणों के उपाश्रय में पहुँचकर उपद्रव करतीं। ऐसे समय उन्हें वहाँ से निकालने के सारे प्रयत्न निष्फल हो जाने पर साधु उसे बंधन में बाँध, राजकुल में ले जाते और राजा से उसे दण्ड देने का अनुरोध करते।३७ उस समय चोरों का बहुत आतंक था। वे साध्वियों का अपहरण कर लेते थे, सार्थवाहों के यान नष्ट कर डालते थे, साधुओं के उपाश्रयों में जबरदस्ती घुस जाते थे और उनके कंबल आदि उठा ले जाते थे।३८ चोर अपनी निर्दयता और क्रूरता के लिए प्रसिद्ध थे।