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अध्याय-५
राजनैतिक जीवन
बृहत्कल्पभाष्य राजनीतिशास्त्र से संबंधित ग्रन्थ नहीं है और न ही इसका यह उद्देश्य है । फिर भी इसमें राज्य और शासन से संबंधित अनेक विषयों की चर्चा हुई है। प्राप्त सूचनाओं से तत्कालीन शासन- व्यवस्था को समझने में काफी मदद मिलती है।
राज्य के प्रकार
प्राचीन भारत में राजतन्त्रात्मक शासन प्रणाली का सर्वदा बोलबाला रहा है। इसका यह अर्थ नहीं है कि अन्य शासन-प्रणालियाँ नदारत थीं क्योंकि प्राचीन ग्रंथों में उनका उल्लेख मिलता है। जैन निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों की यात्रा के सम्बन्ध में बृहत्कल्पभाष्य में उल्लेख है कि वे वैराज्यों में गमनागमन न करें। इसी सन्दर्भ में वैराज्य के चार प्रकार बतलाये गये हैं- अणराय (अराजक ), जुवराय ( यौवराज्य), वेरज्जय (वैराज्य) और वेरज्ज (द्वैराज्य)। अराजक राज्य उसे कहते थे जिसमें राजा की मृत्यु हो जाने पर सिंहासन के दो दावेदार हों और किसी का भी राज्याभिषेक न किया गया हो । यौवराज्य वह राज्य था जिसमें राजा की मृत्यु के बाद युवराज का बाकायदे राज्याभिषेक न किया गया हो और उसने नया युवराज नियुक्त न किया हो। वैराज्य उसे कहते थे जिस पर शत्रु की सेना का अधिकार हो गया हो। द्वैराज्य उस राज्य को कहते थे जिसमें गद्दी को अधिकृत करने के लिये दो राजाओं में युद्ध होता हो ।
राजा
अणरायं निवमरणे, जुवराया जाव दोच्च णऽभिसित्तो । वेरज्जं तु परबलं, दाइयकलहो उ बेरज्जं ॥१
राजा राज्य का सर्वेसर्वा होता था। वह प्रजा का पालक और राज्य का रक्षक होता था। बृहत्कल्पभाष्य में राजा के गुण-दोष का विशद् विवेचन तो नहीं किया गया है लेकिन इतना अवश्य कहा गया है कि जो राजा स्त्री व्यसन, द्यूत व्यसन, मद्य व्यसन आदि में लिप्त रहता है वह राज्य के कार्य व्यापार को चलाने