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बृहत्कल्पसूत्रभाष्य : एक सांस्कृतिक अध्ययन
जैन साधुओं द्वारा कीमती वस्त्र पहनने पर भी प्रायश्चित्त का विधान था। कपड़े पहनने में यह रोक-टोक समझदारी की द्योतक थी, क्योंकि कीमती वस्त्र पहन कर विहार-यात्रा में जाने पर साधु को चोरों का डर था।११३ यही नहीं कीमती कपड़े पहने हुए साधुओं को अक्सर चुंगी वाले भी गिरफ्तार कर लेते थे और इस सन्देह पर कि कपड़े चोरी के होंगे, उन्हें दण्ड देते थे।११४
उकवत से पीड़ित जैन साधुओं को विहित नाप वाले वस्त्रों से बढ़-घट कर नाप वाले वस्त्रों को भी पहनने की आज्ञा थी। वैद्य को दक्षिणा देने के लिए भी साधु किनारी वाले वस्त्र रख सकते थे।११५ ।
नेपाल, ताम्रलिप्त और सिन्ध-सौवीर (सिंध-सागर दोआब और सिंध) बहुत कीमती कपड़े बनाने के प्रसिद्ध केन्द्र थे। इन देशों में साधुओं सहित सब लोग ‘कृत्स्न वस्त्र पहनते थे।११६ सिंधु सौवीर में गंदे और भद्दे कपड़े पहनना बुरा माना जाता था। इस अवस्था में जैन साधु भी कीमती कपड़े पहन सकते थे।१९७ वेश-भूषा
धोती और चादर के आलावा साधुओं को सूती कमरबंद (पर्यस्तक) जिनमें न तो रंग होता था न कोई नक्काशी (अचित्राः) पहनने की आज्ञा थी; बिना जोड़ का यह कमरबंद केवल चार अंगुल चौड़ा होता था।११८ इस उल्लेख से पता चलता है कि उस युग के नागरिक रंगीन और नक्काशीदार कमरबंद पहनते थे। चादरें
भिन्न-भिन्न तरह के पाँच-पाँच दूष्यों के दो जोड़ नागरिक व्यवहार में लाते थे। पहले जोड़ में कोयव, प्रावारक, द्राढ़िकालि, पूरिका और विरलिका हैं जिनके निम्नलिखित अर्थ दिये गये हैं।११९
१. कोयव- इसे रूई भरी दुलाई बतलाया गया है। इसका प्राचीन अर्थ रोएंदार कंबल था।
२. प्रावारक- इसे नेपाल का थुल्ये जैसा बड़ा कंबल कहा गया है क्योंकि साधारणतः कोयव का अर्थ रोएंदार कम्बल और प्रावार का अर्थ प्रचुर रोमवाला बृहत्कम्बल होता है।
३. द्राढ़िकालि- यह बहुत सफेद धुली हुई चादर होती थी जिसके किनारों पर दाँत जैसे अलंकार बने होते थे। यह ब्राह्मणों का परिधान था।