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बृहत्कल्पसूत्रभाष्य : एक सांस्कृतिक अध्ययन
घडिएयरं खलु धणं, सणसत्तरसा बिया भवे धनं ।
तण-कट्ठ-तेल्ल-घय-मधु-वत्थाई संचओ बहुहा ।।२० चावल
चावल की शालि (कलमधान), ब्रीहि (रक्तशालि), तिल और कुलत्थ इन प्रजातियों का उल्लेख मिलता है।२१ अन्यत्र इनके कलमशालि, रक्तशालि तथा महाशालिनाम भी मिलते हैं।२२ कलमशालि२३ पूर्वीय प्रान्तों में पैदा होता था। इसकी बलि देवी-देवताओं को दी जाती थी।२४ संवाध (अथवा संवाह) भी एक प्रकार का कोठार ही होता था जिसे पर्वत के विषम प्रदेशों में बनाया जाता था। किसान अपनी फसल को सुरक्षित रखने के लिये इन्हें ढोकर ले जाते थे।२५
घर के बाहर जंगलों में धान्य को सुरक्षित रखने के लिये फूस और पत्तियों के बुंगे (बलय) बनाये जाते थे और इसके अन्दर की जमीन को गोबर से लीपा जाता था।२६ अनाज के गोलाकार ढेर को पूंज और लम्बाकार ढेर को राशि कहते थे।२७ दीवाल (भित्ति) और कुड्य से लगाकर ढेर बनाये जाते थे; इन्हें राख से अंकित कर, ऊपर से गोबर से लीप दिया जाता था, अथवा इन्हें अपेक्षित जगह में रखकर बाँस और फंस से ढंक दिया जाता था।२८ वर्षा ऋतु में अनाज को मिट्टी अथवा बाँस (पल्ल) के बने हुए कोठों (कोट्ठ) बांस के खम्भों (मंचों) पर बने हुए कोठों अथवा घर के ऊपर बने हुए कोठों (माला) में रखा जाता था; द्वार पर लगाये जाने वाले ढक्कन को गोबर से और फिर उसे चारों तरफ से मिट्टी से पोत दिया जाता था। तत्पश्चात् उसे रेखाओं से चिह्नित कर और मिट्टी की मोहर लगाकर छोड़ दिया जाता था।२९ इसके सिवाय कुम्भी, करभी का भी उल्लेख मिलता है। चावल के छाँटने का उल्लेख 'बृहत्कल्पभाष्य' में नहीं मिलता है। समसामयिक अन्य जैन ग्रन्थों के अनुसार चावलों को ओखली में छांटा जाता था, और उनको मलकर साफ कर लिया जाता था।३० गन्ना
चावल की भाँति गन्ना (उच्छू) भी यहाँ की मुख्य फसल थी। गन्ना कोल्हुओं (महाजन्त; कोल्लुक)३१ में पेरा जाता था। इन स्थानों को यंत्रशाला (जंतसाला)३२ कहा गया है। ईख के खेत को सियार खा जाते थे। उनसे बचने के लिये खेत का मालिक खेत के चारों ओर खाईं खुदवा दिया करता था।३२ पशुओं और राहगीरों से रक्षा करने के लिये खेत के चारों ओर बाड़ लगा दी जाती थी।३४