Book Title: Bruhat Kalpsutra Bhashya Ek Sanskritik Adhyayan
Author(s): Mahendrapratap Sinh
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 67
________________ बृहत्कल्पसूत्रभाष्य : एक सांस्कृतिक अध्ययन राग-छोसविमुक्को, सत्थं पडिलेहे सो उ पंचविहो । भंडी बहिलग भरवह, ओदरिया कप्पडिय सत्थो ।।७२ सार्थ द्वारा ले जाने वाले माल को विधान कहते थे। माल चार तरह का होता था- (१) गणिम, जिसे गिना जा सके जैसे- हरे, सुपारी आदि; (२) धरिम जिसे तौला जा सके जैसे शक्कर आदि; (३) मेय, जिसे नापा जा सके जैसे घी आदि; (४) परिच्छेद्य, जिसे केवल आँखों से जाँच किया जा सके जैसे कपड़े, जवाहरात, मोती इत्यादि।७३ सार्थ के साथ अनुरंगा (एक तरह की गाड़ी), डोली (यान), घोड़े, भैंसे, हाथी और बैल होते थे, जिनपर चलने में असमर्थ बीमार, घायल, बच्चे, बूढ़े और पैदल चल सकते थे। कोई-कोई सार्थवाह इसके लिए कुछ किराया भी वसूल करते थे। लेकिन किराया देने पर भी जो सार्थवाह बच्चों और बूढों को सवारियों पर नहीं चढ़ने देते थे, वे क्रूर समझे जाते थे। ऐसे सार्थवाह के साथ यात्रा करने की मनाही थी। जिस सार्थ के साथ दंतिक (मोदक, मण्डक, अशोकवर्ती- जैसी मिठाइयाँ) गेहूँ, तिल, गुड़ और घी होता था उसे अच्छा समझा जाता था क्योंकि आपत्तिकाल में ऐसे सार्थवाह पूरे सार्थ और साधुओं को भोजन दे सकता था। सार्थों को आकस्मिक विपत्तियों का, जैसे घनघोर वर्षा, बाढ, डाकुओं तथा जंगली हाथियों द्वारा मार्ग निरोध, राज्यक्षोभ तथा ऐसी ही दूसरी विपत्तियों का सामना करने के लिये तैयार रहना पड़ता था। ऐसे समय सार्थ के साथ खानेपीने का सामान होने पर वह विपत्ति के निराकरण होने तक एक जगह ठहर सकता था। सार्थ अधिकतर कीमती सामान ले आया और ले जाया करता था। इनमें केसर, अगर, चोया, कस्तूरी, ईंगुर, शंख और नमक मुख्य थे। ऐसे सार्थों के साथ व्यापारियों और खास करके साधुओं का चलना ठीक नहीं समझा जाता था, क्योंकि इनमें लुटने का बराबर भय बना रहता था। रास्ते की कठिनाइयों से बचने के लिए छोटे-छोटे सार्थ बड़े सार्थों के साथ मिलकर आगे बढ़ने के लिए रुके रहते थे। कभी-कभी दो सार्थवाह मिलकर तय करते थे कि जंगल में अथवा नदी या दुर्ग पड़ने पर वे रात-भर सबेरे साथ-साथ नदी पार करेंगे। सार्थवाह यात्रियों के आराम का ध्यान करके ऐसा प्रबन्ध करते थे कि उन्हें एक दिन में बहुत न चलना पड़े। सार्थ एक दिन में उतनी ही दूरी तय करता था, जितनी बच्चे और बूढ़े आराम से तय कर सकते थे। सूर्योदय से पहले ही जो सार्थ चल पड़ता था उसे कालतः परिशुद्ध सार्थ कहते थे। भाव से परिशुद्ध

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