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आर्थिक जीवन
है।१३८ सभाओं में शुक्ल वस्त्रों को धारण करके जाना शुभ माना जाता था।१३९ 'बृहत्कल्पभाष्य' में एक ऐसी वृद्धा का उल्लेख आया है जो मोटा सूत कातती थी।१४० काष्ठ उद्योग ___काष्ठ के दीपक बनाये जाते थे, जो कई प्रकार (अवलम्बन, उत्कम्पन और, पंजर) के होते थे। इन दीपकों का उपयोग मन्दिरों तथा चैत्यों में होता था।१४१ प्राचीनकाल में काष्ठ का बड़ा महत्त्व था। वनों से कच्चा माल पर्याप्त मात्रा में मिल जाता था। जंगलों से लकड़ी आदि काटने के काम को 'वनकम्म' कहा जाता था।१४२ प्रातः होते ही रथकार गाड़ियाँ लेकर जंगलों में लकड़ी काटने के लिये चल देते थे।१४३ देवालयों के लिए लकड़ी की मूर्तियाँ भी बनाई जाती थीं। कई बार जलते हुए दीपक से उनमें आग लगने के प्रसंग प्राप्त होते हैं।१४४
कृष्णचित्र काष्ठ उत्तम काष्ठ समझा जाता था। कुशल शिल्पी अनेक प्रकार के वृक्षों४५ की लकड़ियों से खड़ाऊं (पाउया) तैयार करते और उनमें वैडूर्य तथा सुन्दर रिष्ट और अंजन जड़कर चमकदार बहुमूल्य रत्नों से उन्हें भूषित करते थे।१४६ चित्र उद्योग
'बृहत्कल्पभाष्य' से ज्ञात होता है कि एक बुद्धिमान गणिका ने अपनी चित्रसभा में विविध उद्योगों से सम्बन्धित चित्र बनवा रखे थे। जब कोई आगन्तुक चित्र विशेष की ओर आकर्षित होता था तब वह उसकी वृत्ति और रुचि का अनुमान लगा लेती थी।
गणिगा मरुगीऽमच्चे, अपसत्थो भावुवक्कमो होइ ।
आयरियस्स उ भावं, उवक्कमिज्जा अह पसत्थो ॥१४७ चर्म उद्योग
चर्मकार अथवा पदकार चमड़े का काम करते थे। जैन साध्वियों के लिये निर्लोम चर्म धारण करने का विधान है।१४८ जैन साधुओं के उपयोग आने वाले सामानों में चमड़े का एक उपकरण था। वस्त्र के अभाव में उन्हें इसका उपयोग विहित था।१४९ जैन साधु और साध्वियाँ भी विशेष परिस्थिति में (रुग्ण आदि होने पर) बकरे, भेड़, गाय, भैंस तथा व्याघ्र के चर्म का उपयोग कर सकते