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सामाजिक जीवन
क्रीड़ा-विनोद
प्राचीन भारत के निवासी अनेक प्रकार से आमोद-प्रमोद और मनबहलाव किया करते थे। यह, छण (क्षण), उत्सव, यज्ञ, पर्व, पर्वणी, गोष्ठी, प्रमोद और संखडि आदि ऐसे कितने ही उत्सव और त्योहार थे जबकि लोग जी-भरकर आनन्द लेते थे। ऐसे अवसरों पर तरह-तरह के व्यंजन भी बनाये जाते थे। नामकरण, चूडाकरण और पाणिग्रहण आदि ऐसे ही उत्सव थे जिसमें लोग सम्मिलित हुआ करते थे।१६१
प्रौढ़ों को क्रीड़ा करने के लिये अनेक उद्यान और आराम आदि होते थे। उद्यान में लोग विविध प्रकार के वस्त्र आदि धारण कर हस्त आदि के अभिनयपूर्वक शृंगार-काव्य का पठन करते तथा सुन्दर वस्त्र और आभूषण से अलंकृत स्त्री और पुरुष वहाँ क्रीड़ा करने जाते थे। श्रेष्ठीपुत्र यहाँ अपने-अपने अश्वों, रथों, गोरथों, युग्मों और डगणों (यान विशेष) पर आरूढ़ होकर भ्रमण किया करते थे।१६२ 'बृहत्कल्पभाष्य' में पूर्णमासी१६३ और स्थानौत्पातिक'६४ नामक दो उत्सवों का उल्लेख प्राप्त होता है। इन उत्सवों पर लोग अनेक तरह से खुशियाँ मनाते थे। धार्मिक उत्सवों में पर्व का सबसे अधिक महत्त्व था।
'बृहत्कल्पभाष्य' में 'रथयात्रा' नामक पर्व का विशद विवरण उपलब्ध है। इसमें लोग यान के साथ भ्रमण करते थे और खुशियाँ मनाते थे। लेकिन ऐसे पर्यों में जैन श्रमण एवं श्रमणियों के जाने का निषेध किया गया है।१६५
विवाह के पूर्व लोग पान देकर मन बहलाते थे। इसे प्रस्तुत ग्रंथ में 'अवाह' कहा गया है।१६६
बृहत्कल्पभाष्य में संखडि१६७ का भी उल्लेख है जो एक प्रकार से भोज या दावत होती थी। अधिक संख्या में जीवों की हत्या होने के कारण इसे संखडि१६८ कहते थे। अनेक पुरुष मिलकर एक दिन की अथवा अनेक दिन की संखडि करते थे।१६९ सूर्य के पूर्व दिशा में रहने के काल में पुरःसंखडि और सूर्य के पश्चिम दिशा में रहने के काल में पश्चात् संखडि मनायी जाती थी। अथवा विवक्षित ग्राम आदि के पास पूर्व दिशा में मनाये जाने वाले उत्सव पुरः संखडि और पश्चिम दिशा में मनाये जाने वाले उत्सव को पश्चिम संखडि कहा जाता था।१७०
१. यावन्तिका, २. प्रगणिता, ३. सक्षेत्रा (क्षेत्राभ्यंतरवर्तिनी), ४. अक्षेत्रा आभ्यंतरवर्तिनी, ५. बहिर्वर्तिनी, ६. आकीर्णा, ७. अविशुद्धपंथगमना, ८. सप्रत्यपाया के भेद से संखडि आठ प्रकार के बताये गये हैं। प्रत्यपाय संखडि