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बृहत्कल्पसूत्रभाष्य : एक सांस्कृतिक अध्ययन
कोढ़ हो जाने पर जैन श्रमणों को बहुत कष्ट भोगना पड़ता था। यदि कहीं उन्हें गलित कोढ़ हो जाता या उनके शरीर में कच्छु (खुजली) या किटिभ१८८ (खाज युक्त क्षुद्र कोढ़) हो जाता, या जुएँ पैदा हो जाते तो उन्हें निर्लोम चर्म पर लिटाया जाता।१८९
ऊर्ध्ववात, अर्श, शूल आदि रोगों से ग्रस्त होने पर साध्वी को निर्लोम चर्म रखने का तथा पागल कुत्ते के काटने पर उसे व्याघ्र चर्म पर सुलाने का विधान है।१९० यदि साधु-साध्वियों को सांप काट लेता, विसूचिका (हैजा) हो जाती, या ज्वर हो जाता तो उन्हें एक-दूसरे का मूत्रपान करने का विधान किया गया है।९१ किसी राजा को महाविषधारी सर्प ने डंस लिया, लेकिन रानी का मूत्रपान करने से वह स्वस्थ हो गया।
दीहे ओसहभावित, मोयं देवीय पज्जिओ राया।
आसाय पुच्छ कहणं, पडिसेवा मुच्छिओ गलितं ।।१९२ घावों को भरने के लिये वैद्य अनेक प्रकार के घृत और तेलों का उपयोग करते थे। ये सब तेल थकावट दूर करने, वात रोग शान्त करने, खुजली (कच्छू) मिटाने और घावों को भरने के उपयोग में आते थे।१९३ चिकित्सा में असफल होने पर चिकित्सकों को अपने प्राण तक गवाने पड़ते थे क्योंकि उल्लेख है कि कोई वैद्य किसी राजपुत्र को निरोग न कर सका, अतएव उसे प्राणों से हाथ धोना पड़ा था।१९४ ___ काँटे वाले प्रदेश में काँटा गड़ने पर उस जगह पर गेहूँ के आटे का लेप कर दिया जाता था। तत्पश्चात् शल्यक्रिया द्वारा उसका उपचार कर दिया जाता था। मवाद निकलने के साथ ही कांटा भी बाहर निकल आता था।१९५
भूत आदि द्वारा क्षिप्तचित्त हो जाने पर भी चिकित्सा की जाती थी। साध्वी के यक्षाविष्ट होने पर भूतचिकित्सा का विधान किया गया है।१९६ चिकित्सा के समय औषधियों की मात्रा का ध्यान रखा जाता था।२९७
'बृहत्कल्पभाष्य'१९८ में हंस तेल का उल्लेख किया गया है। इसे बनाने के लिए हंस को चीरकर, उसका मलमूत्र साफ करके, उसके पेट में औषधियों का मिश्रण भरकर तेल में पकाया जाता था।
विद्या, मंत्र और योग को तीन अतिशयों में गिना गया है। तप आदि साधनों से सिद्ध होने वाले को विद्या, और पठन-मात्र से सिद्ध होने वाले को मंत्र कहा गया है। विद्या प्रज्ञप्ति आदि स्त्री देवता से और मंत्र हरिणेगमेषी आदि पुरुष देवता