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सामाजिक जीवन
या राक्षसों का निवास माना जाता था।०३ 'बृहत्कल्पसूत्रभाष्य' में भेड़ के ऊन से बने कपड़े को और्णिक, ऊँट के बाल से बने कपड़े को औष्ट्रिक और हिरन के रोये से बने कपड़े को मृग रोमज कहा गया है। कुतप छाग पंचेन्द्रिय प्राणी (छाग) आदि के प्राणी से निष्पन्न होता है।०४ 'बृहत्कल्पसूत्रभाष्य'१०५ की एक पाद टिप्पणी में संपादक ने ऊनी कपड़ों के सम्बन्ध में दो चूर्णियों की राय दी है। एक चूर्णि के अनुसार मृग लोम की व्याख्या 'सलोममूषकलोम' की गयी है सलोम का अर्थ यहाँ समूर हो सकता है। मूषक लोम का अर्थ साधारणतः मूसे के बाल से है। निशीथचूर्णि में मृगलोम की व्याख्या की गयी है।
जैन साधु ठीक नाप वाले (प्रमाणवत्), सम तल (समं), मजबूत (स्थित) और सुंदर (रुचिकारक)१०६ वस्त्र पहनते थे। जैन साधुओं को शरीर स्पर्शी ऊनी कपड़े की इसलिए मनाही थी क्योंकि उनमें जूं पैदा हो जाती थी और गर्द भी इकट्ठा हो जाती थी। लेकिन वे ऐसी ऊनी चादरें जिनके गंदे होने का भय नहीं था और जो शरीर को ठंड से बचाती थीं, पहन सकते थे।१०७ सूती धोती न मिलने पर जैन साधु तिरीट पट्ट और रेशम (कौशिकार) की बनी धोतियाँ पहन सकते थे। ऊनी चादर न मिलने पर छालटी की चादर ओढ़ने का आदेश है। उसके भी न मिलने पर तिरीट पट्ट की चादर ओढ़ी जा सकती थी।१०८
__'बृहत्कल्पसूत्र भाष्य' में कपड़े की कटाई सम्बन्धी अनेक शब्द आये हैं। बिना काट जोड़ वाले अनसिले कपड़े प्राकृतिक (यथाकृतं) कहलाते थे। जिस वस्त्र के केवल किनारे (दशिका) कटे होते थे अथवा जो वस्त्र दो कपड़े जोड़कर बनाया जाता था अथवा जो वस्त्र सिला होता था (तन्न) उसे अल्पपरिकर्म यानि कम काम किया हुआ वस्त्र कहते थे। वस्त्र में एक काट और जोड़ अथवा उसके शरीर के नाप से बनने पर और उसमें काफी सिलाई होने पर उसे बहु परिकर्म अर्थात् बहुत काम वाला कपड़ा कहते थे।२०९
उपर्युक्त सब तरह के कपड़े नागरिक पहन सकते थे लेकिन जैन साधुओं को केवल यथाकृत वस्त्र ही विहित था, उसके न मिलने पर कुछ प्रायश्चित्त करने के बाद वे अल्पपरिकर्म और बहुपरिकर्म वस्त्र भी पहन सकते थे। लेकिन बीमारी अथवा यात्रा के समय इस नियम के अपवाद थे।११०
नागरिकों द्वारा व्यवहार में लाये जाने वाले कृत्स्न कपड़े जैन साधु व्यवहार में नहीं ला सकते थे।१११ ये कृत्स्नवस्त्र, नाम, स्थापना, श्रेणी, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार छः श्रेणियों में बँटे थे।११२