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सामाजिक जीवन
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'बृहत्कल्पभाष्य' में कुछ विद्याओं को उच्छिष्ट भी कहा गया है। गौरी, गंधारी आदि विद्याएँ मातंगविद्या मानी गयी हैं।८४ यदि कोई साधु शौच गया हुआ हो और शौच शुद्धि के लिए उसे प्रासुक जल न मिल सके तो उच्छिष्ट विद्या का जाप करके, मूत्र आदि द्वारा शौच की शुद्धि की जा सकती है। आचमन द्वारा रोगी को अच्छा करने का विधान है।
'बृहत्कल्पभाष्य' में जादू-टोना और झाड़-फूंक आदि का भी विधान मिलता है। नजर से बचने के लिए ताबीज आदि बाँधा जाता था।८६ शरीर की रक्षा के लिये अभिमंत्रित की हुई भस्म मलने अथवा डोरा आदि बाँधने को भूतकर्म कहते हैं। कभी भस्म की जगह गीली मिट्टी का भी उपयोग किया जाता था। जैन श्रमण अपनी वसति, शरीर और उपकरण आदि की रक्षा के लिए, चोरों से बचने के लिए अथवा ज्वर आदि का स्तंभन करने के लिए भूति का उपयोग करते थे। निमित्त द्वारा भूत, भविष्य और वर्तमान में लाभ हानि का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता था। चूड़ामणि निमित्तशास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ था।८८.
'जैनसूत्रों' में अनेक शुभ-अशुभ शकुनों का उल्लेख मिलता है। जगहजगह स्नान, बलिकर्म, कौतुक, प्रायश्चित्त का उल्लेख है। अनेक वस्तुओं का दर्शन शुभ और अशुभ माना गया है। उदाहरण के लिए, यदि बारह प्रकार के वाद्यों की ध्वनि एक साथ सुनाई दे (नन्दितूर्य), शंख और पटह का शब्द सुनाई पड़े, तथा पूर्ण कलश,८९ शृंगार, छत्र, चमर, वाहन, यान, श्रमण, संयत, दांत, पुष्प, मोदक, दही, मत्स्य, घंटा और पताका का दर्शन हो तो उसे शुभ बताया है।९० चरक, तापस, रोगी, विकलांग, आतुर, वैद्य, कषाय वस्त्रधारी, धूलि से धूसरित, मलिन शरीर वाले, जीर्णवस्त्रधारी, बायें हाथ से दाहिने हाथ की ओर जाने वाले स्नेहाभक्त श्वान, कुब्जक और बौने, गर्भवती नारी, बड्डकुमारी (बहुत समय तक जो कुंवारी हो), काष्ठ भार को वहन करने वाली और कुंच्चधर (कूर्चधर) के दर्शन को अपशकुन कहा है; इनके दर्शन से उद्देश्य की सिद्धि नहीं होती।११ यदि चक्रचर का दर्शन हो जाय तो बहुत भ्रमण करना पड़ता है, पांडुरंग का दर्शन हो तो भूखे मरना होता है।९२ तच्चन्तिक (बौद्ध साधु) का हो तो रुधिरपात होता है और वोटिक का दर्शन होने से निश्चय ही मरण समझना चाहिए।९३ पाटलिपुत्र में राजा मुरुण्ड राज्य करता था। एक बार उसने अपने दूत को पुरुषपुर भेजा। लेकिन वहाँ रक्तपट साधुओं को देख, उसने राजभवन में प्रवेश नहीं किया। एक दिन राजा के अमात्य ने उसे बताया कि यदि रक्तपट गली के भीतर या बाहर मिलें तो उन्हें अपशकुन नहीं समझना चाहिए।९४