________________
सामाजिक जीवन
बनता था एक बार उसका भाई कहीं दूर देश से आया उसके सम्मान के लिए वह किसी धनी के घर से शालि का भोजन मांग कर लाई।६४ जैन ग्रन्थों में उच्च तथा निम्न वर्ग में कहीं समानता दिखाई नहीं पड़ती। समाज का एक ऐसा विप्पन्न वर्ग भी था जो कष्टपूर्ण जीवन बिता रहा था उन्हें भरपेट भोजन भी सुलभ नहीं था।६५
मदिरापान
मद्य और मांस की गिनती अच्छे भोजन में की जाती थी। जैनसूत्रों में १८ प्रकार के व्यंजनों में मद्य और मांस का उल्लेख मिलता है।
शराब बड़े परिमाण में तैयार की जाती थी, और खपत भी इसकी बहुत थी। मद्यशालाओं (पाणागार; कप्पशाला) में तरह-तरह की शराब बनाकर बेची जाती थी।६६ रस वाणिज्य (शराब का व्यापार) का १५ कर्मयानों में उल्लेख किया गया है। महाराष्ट्र में शराब की दुकानों (रसापण) पर ध्वजा लगाने का रिवाज था।६७
'बृहत्कल्पसूत्र' में जैन भिक्षु और भिक्षुणियों को उस स्थान पर ठहरने का निषेध किया गया है जहाँ मद्य के कुम्भ रखे रहते हों।६८ ध्यान रखने की बात है कि जैन साधु को मद्यपान का सर्वथा निषेध था,६९ लेकिन उपसर्ग, दुर्भिक्ष, आतंक, बुढ़ापा, रोग आदि उपस्थित होने पर मार्ग का अनुसरण कर वे मद्यपान कर सकते थे। 'ग्लानत्वे वा वैद्योपदेशेन विकटं ग्रहीतव्यम्'।७०
'बृहत्कल्पभाष्य' में मद्य को स्वास्थ्य और दीप्ति का कारण बताया गया है।७१ चावल अथवा गन्ने के रस से शराब (वियड = विकट) बनायी जाती थी। यह दो प्रकार की होती थी, सुराविकट और सौवीरविकट। व्रीहि आदि के पिष्ट से बनी हुई शराब को सुराविकट तथा द्राक्षा, खजूर आदि के द्वारा बनायी हुई शराब को सौवीरविकट (मद्य) कहा जाता था।७२ वांशी (वांस के अंकुरों से बनायी हुई) और फलसुरा फलों के रस आदि से बनायी हुई; इसे सौवीर भी कहा गया है,७३ शराबों के कापिशायन आदि (बृ.क.भा. ३४०८) नाम भी उल्लिखित हैं। मांस भक्षण
मद्यपान की भांति उस समय मांसभक्षण का भी रिवाज था। जैन साधुओं को दिये जाने वाले भिक्षापिंड में दूध, दही, मक्खन, घी, गुड़, तिल, मधु आदि के साथ मद्य और मांस का भी उल्लेख मिलता है। मांस या मत्स्य को पकता हुआ देखकर साधु के लिए याचना न करने का विधान है लेकिन वह किसी