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बृहत्कल्पसूत्रभाष्य : एक सांस्कृतिक अध्ययन
दिशाओं को भी शुभ और अशुभ बताया गया है।९५ उत्तर और पूर्व दिशाओं को लोक में पूज्य कहा गया है, अतएव शौच के समय इन दिशाओं की ओर पीठ करके नहीं बैठना चाहिए।१६ मान्यता यह है कि नैऋत्य दिशा में शवस्थापन करने से साधुओं को प्रचुर अन्न, पान और वस्त्र का लाभ होता है। पूर्व दिशा को पसन्द करने से गण या चरित्र में भेद हो जाता है, उत्तर दिशा को पसन्द करने से रोग शान्त हो जाता है, और उत्तर-पूर्व दिशा को पसन्द करने से साधु के मरण की संभावना होती है।९७
साधु के कालगत हो जाने पर शुभ नक्षत्र में ही उसे ले जाने का विधान है। यदि समक्षेत्र (३० मुहूर्त योग्य) हो तो एक ही पुतला बनाना चाहिए और यदि अपार्ध-क्षेत्र (१५ मुहूर्त योग्य) हो तो एक भी पुतला बनाने की आवश्यकता नहीं हैं। इसके अतिरिक्त जिस दिशा में शव स्थापित किया गया हो, वहाँ गीदड़ आदि द्वारा खींचकर ले जाये जाने पर भी, यदि शव अक्षत रहता है तो उस दिशा में सुभिक्ष
और सुख-विहार होता है। जितने दिन जिस दिशा में शव अक्षत रहे, उतने ही वर्ष तक उस दिशा में सुभिक्ष रहने और परचक्र के उपद्रव का अभाव बताया है। यदि कदाचित् शव क्षत हो जाये तो दुर्भिक्ष आदि की संभावना होती है।९९
किसी साधु के रुग्ण हो जाने पर यदि अन्य साधुओं को वैद्य के घर जाना पड़े तो उस समय भी शकुन विचार कर प्रस्थान करने का विधान है। उदाहरण के लिए, वैद्य के पास अकेले, दुकेले या चार की संख्या में न जाये, तीन या पाँच की संख्या में ही गमन करना चाहिए। यदि चलते समय द्वार में सिर लग जाये और साधु गिर पड़े, या जाते समय कोई टोक दे, या कोई छींक दे तो इसे 'अपशकुन' समझना चाहिए।१०० वस्त्र एवं अलंकार
'बृहत्कल्पसूत्र'१०१ में चार समय कपड़े बदलने की बात कही गयी है(१) नित्य निवसन, (२) नहाने के बाद का कपड़ा (मज्जनिक), (३) उत्सवों पर पहने जाने वाले वस्त्र (क्षणोत्सविक) तथा (४) राजाओं, सभासदों इत्यादि से मिलने के समय के कपड़े (राजद्वारिक)। कपड़ों की धुलाई और तैयारी का बहुत ख्याल रखा जाता था। छेदसूत्रों में कपड़े धोने, कलफ करने और वासने की प्रथाओं का उल्लेख है। पहले कपड़े को धो लिया जाता था (धौत), फिर उस पर कुंदी कर के (धृष्ट) माड़ी (मृष्ट) दी जाती थी और अन्त में धूप से वास (संत्रधूमित) दिया जाता था।३०२ कपड़े के भिन्न-भिन्न भागों में देवताओं