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सामाजिक जीवन
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जैनग्रन्थों में आर्य और अनार्य दो जातियाँ बताई गई हैं। आर्य अथवा इभ्य जातियों में कुल छह जातियों की गणना की गई है- अम्बष्ठ, कलिन्द, वैदेह, विदक, हारित और तन्तुण। छह कुलार्यों का भी उल्लेख है- उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय, ज्ञात, कौरव और इक्ष्वाकु।
उग्गा भोगा राइण्ण खत्तिया तह य णात कोरव्वा ।
इक्खागा वि य छट्ठा, कुलारिया होंति नायव्वा ।। बौद्ध धर्म की तरह जैन धर्म में भी चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) वाली व्यवस्था को महत्त्वपूर्ण नहीं माना गया। लेकिन इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं निकालना चाहिए कि जैन ग्रन्थकारों को इनकी जानकारी नहीं थी क्योंकि प्रस्तुत ग्रन्थ में यत्र-तत्र इनका उल्लेख हुआ है।
ब्राह्मण
वैदिक काल से ही ब्राह्मणों को सभी वर्गों में श्रेष्ठ कहा गया है। वे पठनपाठन के साथ यज्ञ-हवन आदि उत्तम कार्य में रत रहते थे। राजदरबारों में उन्हें विशिष्ट स्थान प्राप्त था तथा राजा के सचिव आदि श्रेष्ठ पदों को सुशोभित करते थे। अन्त्येष्टि क्रिया के बाद मृतक आत्मा की शांति के लिए ब्राह्मणों को घर बुलाकर भोजन कराया जाता था। विशिष्ट ब्राह्मणों को दान देने की भी प्रथा थी। 'बृहत्कल्पभाष्य में उनके सम्बन्ध में इतना ही उल्लेख है कि वे षट् अंग (शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष और कल्प), चार वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद
और अथर्ववेद) मीमांसा, न्याय, पुराण और धर्मशास्त्र- इन चौदह विद्याओं में कुशल होते थे। एक जगह यह भी उल्लेख है कि ब्राह्मण कभी किसी देवता को प्रसन्न करने के लिये आगन्तुक पुरुष को मार डालते और जहाँ वह मारा जाता उस घर के ऊपर शीलिवृक्ष शाखा का चिह्न बना दिया जाता था। (क्षत्रिय) खत्तिय
क्षत्रिय समाज का पोषण और रक्षा करता था। समाज के संवर्धन में उसका महत्त्वपूर्ण योगदान था। राजा के रूप में क्षत्रिय का विशेष कर्तव्य था। शस्त्र धारण करना, देश का निष्पक्ष शासन करना और वर्णाश्रम धर्म की रक्षा करना।
जैन ग्रंथों में क्षत्रियों का बहुत बखान किया गया है। चौबीसों जैन तीर्थंकर क्षत्रिय कुल में ही उत्पन्न बताये गये हैं। क्षत्रिय ७२ कलाओं का अध्ययन करते और युद्ध-विद्या में कुशलता प्राप्त करते थे। अपने भुजबल द्वारा वे देश पर शासन करने का अधिकार प्राप्त करते थे। ऐसे कितने ही क्षत्रिय राजाओं और राजकुमारों