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न्यायसार
अवयवनिरूपण परार्थानुमान में प्रतिज्ञादि अवयवों का महत्वपूर्ण स्थान है। आचार्य भासर्वज्ञ ने न्यायसूत्रानुसार प्रतिज्ञादि पांच अवयव माने हैं। मीमांसकों को केवल तीन अवयव ही स्वीकार्य हैं और वेदान्तियों ने प्रायः केवल दो अवयवों का प्रयोग किया है। मानमनोहरकार वादिवागीश्वराचार्य ने उपनय तथा उदाहरण-इन दो अवयवों को ही स्वीकार किया है । वेदान्ती चित्सुखाचार्यने अपने प्रबल प्रतिद्वन्द्वी के इस सुझाव को ही अपने सिद्धान्त का आधार मानकर कहा है-'अंगं द्वयमेवव्याप्तिः पक्षधर्मता चेति तच्चोभयमुदाहरणोपनयाभ्यामेवाभिहितमिति किम परमवशिष्यते यदर्थमुणददीत' । न्यायभाष्यकार ने प्रतिज्ञादि अवयवों की व्याख्या करते हुए उनसे भिन्न पांच और अवयवों का उल्लेख किया है। इससे प्रतीत होता है कि उनके पूर्ववती कतिपय नैयायिक दश अवयव मानते थे। वार्तिककार ने भी दशावयववादिमत का निर्देश किया है । भाष्यकार ने यह स्पष्ट किया है कि तत्त्वार्थसाधन के कारण प्रतिज्ञादि पांच अवयव साधक वाक्य के अंगभूत हैं, जिज्ञासादि नहीं । जिज्ञासादि क्याप्रवृत्ति में अवधारणीय अर्थ के उपकारक होते हैं। भाष्यकार से सहमति व्यक्त करते हुए उद्योतकर ने भी कहा है कि जिज्ञासादि प्रकरण के उत्थापक हैं, अवयव नहीं ।
भासर्वज्ञ ने भी जिज्ञासादि के अवयवत्व का खण्डन किया है। जिस शब्द की महावाक्य के साथ एकवाक्यता होती है, वही वाक्य का अवयव हो सकता है। अवयव वाक्य के एकदेश होते हैं, जिज्ञासादि की यह स्थिति नहीं है। अर्थात प्रतिज्ञ दि शब्दात्मक हैं और जिज्ञासादि ज्ञानात्मक । किसो विषय को विशेषतया जानने की इच्छा जिज्ञासा कहलाती है, विरुद्ध धर्मो का उपस्थापक ज्ञान संशय कहा जाता है । अभीष्ट प्रमाण का संभव शक्यप्राप्ति कहलाती है और अभिप्रेत अर्थ का निश्चय प्रयोजन होता है। परपक्ष का प्रतिषेध संशययुदास कहलाता है। ये जिज्ञासादि अवयव वाक्यात्मक (वचनात्मक) नहीं है, अतः दशावयप्रसंग नहीं है।
1. अंगे च द्वे एव व्याप्तिपक्षधर्मत्वे । न हि ततोऽधिकं प्रवृत्त्यंगम् । -मानमनोहर, पृ. ८५ 2. चित्सुखी, पृ. ४०१ 3. न्यायभाप्य, १।१।३२ 4. एके ताबद् ब्रुवते दशावयवं वाकयम...। -न्यायवार्तिक, ११११३२ 5 न्यायवार्तिक, १।१।३२ 6. न चते वचनात्मकास्तन्न दशावयवप्रसङ्गः । -न्यायभूषण, पृ. २८७
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