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अनुमान प्रमाण
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यद्यपि इन दोनों असिद्धों में असिद्धलक्षण का अभाव होने से यह असिद्ध नहीं हैं, क्योंकि इनमें विशेष्य व विशेषण का व्यर्थत्व ही दूषण है, न कि हेतु का । " तथापि मोमांसक वैयाकरणादि के मत में शब्द में कृतकत्व असिद्ध है, उनकी दृष्टि से इसे असिद्ध कहा गया है ।" इसलिये अपरार्क ने कहा है 'गुरुमते तु वैयर्थ्य - मेवात्र दूषणम् । अत्रासिद्धित्वं तु नास्ति निश्चितपक्षवृत्तित्वात् । यस्य तु यदे कृतकत्वमसिद्धं तं प्रत्यसिद्धत्वमुच्यते । 8
१०. सन्धिग्धासिद्ध :
यह एक महत्त्वपूर्ण हेत्वाभास है । धूम व बाष्प के भेद की अनिश्चयदशा में कोई व्यक्ति कहता है 'अग्निमानयं प्रदेशो धूमत्वात्' इति । अर्थात् यह धूम हैं या भाप - इस प्रकार साधन की अनिश्चयदशा में प्रयुक्त घूमत्त्व हेतु सन्दिग्धासिद्ध कहलाता है । इससे यह अवगत होता है कि निश्चित साधन का ही साध्यसिद्धि के लिये प्रयोग करना चाहिये, अन्य का नहीं । अवयवप्रयोग की दृष्टि से यह दूषित प्रतीत नहीं होता, परन्तु दोष की उत्पत्ति साधनविषयक सन्देह से होती है । वाष्पादि में प्रयुक्त 'आदि' शब्द से मशकावर्त' का ग्रहण होता है ।
११. सन्दिग्धविशेष्यासिद्ध :
जिस विशिष्ट हेतु का विशेष्य अंश सन्दिग्ध हो, उसे सन्दिग्धविशेष्यासिद्ध कहते हैं । जैसे 'अद्यापि रागादियुक्तः कपिलः, पुरुषत्वे सति अद्याप्यनुत्पन्नतत्त्वज्ञानत्वात्' इति । यहाँ कपिल में 'रागादियुक्तत्व' साध्य है । कपिल में भी कदाचित् रागादिसम्बन्ध संभव है अतः सिद्धसाध्यता के परिहारार्थ प्रतिज्ञावाक्य में 'अद्यापि ' पद दिया गया है । पाषाणादि में हेतु की व्यभिचारनिवृत्त्यर्थ 'पुरुषत्वे सति' पद दिया गया है । 'अनुत्पन्नतत्त्वज्ञानात्' यह कहने पर महायोगियों में 'अनुत्पन्नतत्वज्ञानत्व' के होने पर भी उनकी नीरागता के कारण व्यभिचार हो जायेगा । अतः व्यभिचारनिवृत्ति के लिये हेतु में 'अद्यापि पद दिया गया है । यहाँ हेतु में अनुत्पन्न - तत्त्वज्ञानत्व' विशेष्य अंश संदिग्ध है, क्योंकि कपिल को तत्त्वज्ञान उत्पन्न हुआ या नहीं, इस संशय के कारण हेतु सन्दिग्धविशेष्यासिद्ध है ।
१२. सन्दिग्धविशेषणासिद्ध :
'अद्यापि रागादियुक्तः कपिलः सर्वदा तत्त्वज्ञानरहितत्वे सति पुरुषत्वात्' । तत्रज्ञानरहितत्व के कदाचित् रहने पर रागादियुक्तत्व की सिद्धि नहीं होगी, अतः
1. न्यायभूषण, पृ. ४११,३१२
2 असिद्धत्वं तु कृतकत्वस्य मीमांसकाभिप्रायेण । - न्यायसारपदपंचिका, पृ. ३८ 3. न्यायमुक्तावली, प्रथम भाग पु. २१८-२१९
4. वादीत्यादिशब्देन मसकावर्त स्वीकार: । -- न्यायसारपदपंचिका, १. ३८.
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