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कथा निरूपण तथा छल ...
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इस दोष का उद्धार सूत्रकार ने 'अनुपलम्भात्मकत्वादनुपलब्धेरहेतुः ' इस सूत्र के द्वारा किया है अर्थात् नास्ति इत्याकारक ज्ञान ही अनुपलब्धि है और वह ज्ञान अभावत्वेन ही सर्वानुभवसिद्ध है और उसी रूप से सबको उपलब्ध है । अतः अनुपलब्ध की अनुपलब्धि नहीं बन सकती और अनुपलब्धि की अनुपलब्धि न होने से अनुपलब्धि का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता, अतः तद्विपरीत बुद्ध्यादि की सत्तारूप अनिष्ट का आपादन भी संभव नहीं ।
(२२) अनित्यसम
किसी साधर्म्य के कारण तत्तुल्य धर्म की उपपत्ति मानने पर सभी पदार्थों में अनित्यत्वरूप अनिष्ट का आपादन अनित्यसम है, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है'साधम्यत् तुल्यधर्मोपपत्तः सर्वानित्यत्वप्रसंगादनित्यसमः । " जैसे- शब्द में घट के साथ कार्यत्वरूप साधर्म्य के कारण घट के अनित्यत्व धर्म की तरह शब्द में अनित्यत्व मानने पर सभी पदार्थों में अनित्यत्व की प्रसक्ति होगी । क्योंकि शब्द और घट में जैसे कार्यत्व साधर्म्य है. उसी प्रकार अस्तित्व रूप धर्म को लेकर घर का सभी पदार्थों में घटतुल्य धर्म अनित्यता का आपादन होने लग जायेगा, यही अनित्यसम है । अनित्यसम अविशेषसम ही है. केवल शब्दमात्र का भेद है, अतः उसमें जो समाधान प्रस्तुत किया गया, वही इसका समाधान है । अर्थात् अस्तित्वमात्र साधर्म्य के कारण सब पदार्थों में घट की तरह अनित्यत्व का आपादन प्रत्यक्षादिप्रमाणविरोध के कारण संभव नहीं ।
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इस समाधान के होने पर भी व्युत्पत्यर्थ दूसरा समाधान भी सूत्रकार ने ' साधर्म्यादसिद्धेः प्रतिषेधासिद्धिः प्रतिषेध्यसाधर्म्यात् 8 इस सूत्र द्वारा प्रस्तुत किया है अर्थात् घट के साथ आस्तित्वरूप साधर्म्य के कारण सभी पदार्थों में अनिवत्वापादन का प्रयोजन क्या है ? शब्दानित्यत्वप्रतिषेध तो बन नहीं सकता, क्योंकि सभी पदार्थों में अनित्यत्व के सिद्ध होने पर शब्द में भी अनित्यत्व ही सिद्ध होता है, तद्विपरीत नित्यत्व नहीं । साध्य के असाधक वचनमात्र कार्यत्वरूप घटमाधर्म्य से शब्द में अनित्यत्व मानने पर अस्तितारूप वचनमात्र घटसाधर्म्य के सभी पदार्थो में होने से उनमें भी अनत्यत्व का आपादन होगा | यह मानने पर यही निष्कर्ष आता है कि साध्यासाधक वचनमात्र साधर्म्य के कारण किसी धर्म को सिद्धि नहीं हो सकती । अर्थात् असाधक वचनमात्र हेतु नहीं कहलाता । ऐसा मानने पर शब्द में दुक्त अनित्यत्व का प्रतिषेध भी अनुपपन्न हो जायगा, क्योंकि प्रतिषेध का प्रतिषेध्य अनित्यत्व के साथ अभिषेयत्वादिरूप वचनमात्र ही साधर्म्य है, न कि साध्यासाधक साधर्म्य |
1. न्यायसूत्र, ५/१/३०
2. वही, ५।१।३२
3.
५/१/३३
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