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न्यायसार
नव्य न्याय के प्रवर्तक आचार्य गंगेशोपाध्याय ने भी अपने 'तत्त्वचिन्तामणि' नामक ग्रन्थ में क्रमशः प्रत्यक्ष-खण्ड, अनुपानखण्ड, उपमानखण्ड और शब्दखण्ड का का निरूपण करते हुए इसी क्रम को अपनाया है। सूत्रनिर्दिष्ट एक पदार्थ का निरूपण हो जाने के पश्चात् उत्तरभावी पदार्थ के निरूपण का अवसर सहज सुलभ हो जाता है, अतः अवसरसंगति का सहारा लेकर अनुमान के अनन्तर शब्द का निरूपण न्यायसंगत है । उपमान प्रमाण अनुमान के अनन्तर निर्दिष्ट होने पर भी भासर्वज्ञ ने उसका प्रामाण्य स्वीकार नही किया है। अतः उनका कहना है'अवसितमनुमानमागस्येदानी लक्षणमुच्यते'1 (अवसरसंगत्या)। .
भासर्वज्ञाचार्य ने समयबलेन सम्यवपरोक्षानुभवसाधनगमागमः १ यह आगम प्रमाण का लक्षण किया है । सव्यापार कारण को हो कार्य का निर्वर्तक माना जाता है। जैसे-उद्यमन, निपातनादिव्यापारयुक्त कुठार काष्ठादि के द्वैधीभाव का सम्पादक होता है। जैसे इन्द्रियसन्निकर्षरूप व्यापार के माध्यम से चक्षुरादि करणों में प्रत्यक्ष ज्ञान की जनकता आती है तथा जैसे व्याप्ति (अविनाभाव)-बान को व्यापार बनाकर साधन अपने साध्य की अनुमिति किया करता है, उसी प्रकार संगातग्रह या संकेतज्ञानरूप व्यापार द्वारा पदज्ञान परोक्षज्ञान का साधन बनता है। उसी साधन को आगम प्रमाण कहा जाता है। भासर्वज्ञोक्त आगम प्रमाण के इस लक्षण का उनके परवर्ती उदयनाचार्य ने भी उल्लेख किया है-'तत्र समयबलेन सम्यक्परोक्षानुभवसाधनं शब्द इति एके' । पदकृत्य पर विचार करते हुए उन्हों ने कहा है कि प्रथम, द्वितीय, तृतीय चतुर्थ तथा पंचम पद कमशः अनुमान, शब्दाभास, सविकल्पक प्रत्यक्ष, पदार्थस्मरण तथा कर्ता व कर्म के निवर्तक हैं । 'अस्मात् पदादयः मर्थो बोद्धव्यः'-इस प्रकार की ईश्वरीय इच्छा या संकेत ही समय कहलाता है। ईश्वरीय इच्छारूप संकेत अनादि होता है और वही मुख्य है। पाणिनि आदि कृत गुणसंज्ञा, वृद्धिसंज्ञा आदि भी आधुनिक संकेत हैं, किन्तु वे अमुख्य हैं। सभी सूत्रकारों ने अपने ग्रन्थों में पृथक्-पृथक् समय माने हैं।
कतिपय दार्शनिक ज्ञायमान शब्द को करण मानते हैं और अन्य शब्दज्ञान को* । इस प्रकार शब्द और शब्दज्ञान दोनों का प्रहण आगम से होता है । आचार्य भासर्वज्ञ ने दोनों मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए 'तच्छ दात्मकमशब्दात्मक वा करणम्' यह कहकर विकल्प से दोनों को स्वीकार किया है। इस प्रकार यह निष्कृष्टार्थ प्राप्त होता है कि समय -सामर्थ्य से परोक्ष प्रमा के करणीभूत पदार्थ को
1. न्यायसार, पृ. २९ 2. वही, पृ. २९ 3. तात्पर्यपरिशुद्धि, ११७ 4. पदज्ञानं तु करणं द्वारं तत्र पदार्थधीः । -भाषापरिच्छेद, का. ८१ 5. न्यायभूषण, पृ ३७९
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