________________
२२०
न्यायसार
होने पर ही उपपन्न हो सकता है, अन्यथा योगी की आत्मा एक काल में भोगार्थनिर्भित अनेक शरीरों का अधिष्ठाता नहीं बन सकता। “विभुरात्मा परमाणुपरिमाणानाश्रयत्वे सति नित्यद्रव्यत्वात् आकाशवत् "1 इस अनुमान से भी आत्मा में विभुत्व सिद्ध होता है।
आत्मज्ञान का प्रयोजन . समस्त लोक प्रयोजनप्रेरित है, जैसाकि कहा गया है-'न हि प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न समप्रवर्तते । अतः यह प्रश्न स्वाभाविक है कि आत्मज्ञान प्रयोजन है जिसकी सिद्धि के लिये इतना यत्न किया गया है। इसका उत्तर देते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि परलोकसिद्धि हो आत्मज्ञान का प्रयोजन है। आत्मा की सिद्धि न होने पर परलोकी अर्थात् परलोक में गमन करने वाले तथा वहां फल भोगने वाले पुरुष को सिद्धि नहीं होगी और परलोकों को सिद्ध न होने पर परलोक की भी सिद्धि नहीं होगी । आप च, प्रेक्षावान् पुरुष की स्वर्ग के लिये प्रवृत्त नहीं होगी, क्योंकि परलोक में फलभोक्ता आत्मा के सद्भाव से परलोक की सत्ता निश्चित होती है और परलोक में मानव की प्रवृत्ति होती है और तत्पश्चात् अभिप्रेत अर्थ की सिद्धि होती है। इस प्रकार परलोक में प्रवृत्ति के लिये उपयोगी होने तथा अधर्मक्षय का हेतु होने के कारण आत्मज्ञान निःश्रेयस का अंग है। 'तरति शोकमात्मवित् ' (छा. उ. ११४३) इत्यादि श्रुतियों से आत्मा का अधर्मक्षयहेतुत्व अवगत है।
परमात्मा न केवल जीवरूप अपरात्मा का ज्ञान परलोकसिद्धि व परलोकप्रवृत्ति के लिये उपयोगी होने से और अधर्मक्षय का कारण होने से निःश्रेयस का अंग है, अपितु परमात्मा के भी उपास्यत्वेन उपासना का अंग होने से उसका ज्ञान भी निःश्रेयस का अंग है। परमात्मा की उपासना से राग-द्वेष-मोहरूप क्लेशों व कर्मो का नाश होता है तथा महेश्वरविषयक चित्तकाग्रयरूप समाधि की प्राप्ति होती है । इसके अतिरिक्त यमनियमादि योगांगों का अनुष्ठान क्लेशक्षयार्थ तथा महेश्वरविषयक समाधिप्राप्त्यर्थ उपादेय है। ब्रह्मादिस्थावरान्त विषयों में अनेक प्रकार की दुःखभावना से अनभिरतिसंज्ञक उत्कृष्ट वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। वैराग्यपूर्वक योगांगों के सेवन से परमात्मविषयक परा भक्ति का उदय होता है और शीघ्र ही अनुपम शिव तत्व का साक्षात्कार होता है और उसके साक्षात्कार से निरतिशय श्रेयोरूप मोक्ष की प्राप्ति
1. न्यायभूषण, पृ. ५४५ 2. वही, पृ. ५४८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org