Book Title: Bhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Ganeshilal Suthar
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 233
________________ २१८ न्यायसार दीपज्वाला भिन्न है, फिर भी उत्तरक्षणवर्तिनी दीपज्वाला पूर्वक्षणवर्तिनी दीपज्वाला के समान है, इस सादृश्य को लेकर ही 'सेयं दीपज्वाला' यह एकत्व-प्रत्यभिज्ञा हो रही है। उसी प्रकार घटादि में भी सादृश्य को लेकर स एवायं घटः' इस प्रत्यभिज्ञा की उपपत्ति मानने पर पदार्थों को क्षणिक मानने में कोई आपत्ति नहीं है, यह कथन भी अविचारविजृम्भित है। प्रत्यक्ष द्वारा दीपज्वाला की क्षणिकता सिद्ध होने पर वहां 'सेयं दीपज्वाला' इस प्रत्यभिज्ञा को भ्रान्त मानने पर सर्वज्ञ अर्थात् घटादि स्थल में भी प्रत्यभिज्ञा को भ्रान्त मानना संगन नहीं है । अन्यथा प्रत्येक ज्ञान में भ्रान्तता की प्रसक्ति होगी। इस प्रकार बुद्ध्यादि के आश्रयत्वेन शरीरादि से भिन्न आत्मा की सिद्धि हो जाती है। आत्मनित्यत्व यह आत्मा नित्य है, क्योंकि वह अनादि तथा भावरूप है । अतः 'आत्मा नित्यः, भावत्वे सति अनादित्वात् गगनवत' इस अनुमान से आत्मा में नित्यत्व की सिद्धि हो जाती है। यदि आत्मा को नित्य नहीं माना जायेगा, तो सद्योजात बालक की स्तन्यपान में प्रवृत्ति अनुपपन्न हो जायेगी; क्योंकि इष्टज्ञान के बिना किसी भी प्राणी की किसी भी कार्य में प्रवृत्ति नहीं होती और स्तन्यपान मेरा इष्टजनक है', यह ज्ञान सद्योजात बालक को इस जन्म में हुआ नहीं है, अतः जन्मान्तर का अनुभव ही इस विषय में मानना होगा, जिसका स्मरण कर उसकी स्तन्यपान में प्रवृत्ति होती है। अतः जन्मान्तर में और इस जन्म में एक ही आत्मा मानना पड़ता है। अन्यथा अन्यानुभूत का अन्य द्वारा स्मरण न होने से स्तन्यपान में उसकी प्रवृत्ति नहीं होगी । इसी प्रकार सद्योजात बालक की हर्ष-भय-शोक आदि निमित्त उपस्थित होने पर उनमें प्रवृत्ति या निवृत्ति भी आत्मा को नित्य सिद्ध कर रही है। आत्मविभुत्व भासर्वज्ञ ने आत्मा के वैष्णवाभिमत' अणुपरिमाणत्व और जैनाभिमत शरीरमात्र. परिमाणत्व' का खण्डन किया है तथा उसका विभुपरिमाणत्व सिद्ध किया है। 'न्यायसार' में जीव की व्यापकत्वसिद्धि के लिये भासर्वज्ञ ने निम्नलिखित हेतु दिये हैं - 'धर्मादेराश्रयसंयोगापेक्षस्य गुरुत्वादिवदाश्रयान्तरे वायवादी क्रियाकर्तृत्वात्, अणिमाद्युपेतस्य योगिनो युगपदसंख्यातशरीराधिष्ठातृत्वाच्च' ।' अभिप्राय यह है कि 1. बालानशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च । ____ भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥ -श्वेताश्वतरोपनिषद्. ५।९ 2. जीवो उबओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो । भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोइढगई ॥ -द्रव्यसंग्रह, २ 3. न्यायभूषण, पृ. ५४४ 4. न्यायसार, पृ. ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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