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न्यायसार
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अतः अनध्यवसाय संशय से भिन्न है । यद्यपि यहां किरणावलीकार ने भूषणकार का उल्लेख नहीं किया है, तथापि यहां भूषणकार के मत का ही खण्डन है, क्योंकि उन्होंने ही सर्वप्रथम अनध्यवसाय का संशय में अन्तर्भाव किया है ।
वैशेषिक आचार्य वादिवागीश्वर ने तो भासर्वज्ञ से सहमति व्यक्त करते हुए कहा है- विरुद्धकोटिसंस्पनिश्वयः संशयः । विरुद्धकोट्यसंस्पर निश्चयोऽनध्यवसायः । अरमा भरप्यनवधारणत्वस्य संशयानध्यवसाययोरभ्युपगतेः । तेन चास्मदुक्तावान्तरभेदस्याभ्युपगतत्वाद् भासर्वज्ञेन सहास्माकं नास्ति विप्रतिपत्तिरिति नात्र प्रपंच्यते ।
इस प्रकार परवर्ती आचार्यों ने भूषणकार का परत्व - अपरत्य - सम्बन्धी मत भी उधृत किया है । न्यायलीलावतीकार कहते हैं- 'न च परत्वापरत्वसिद्धिरपि । बहुतरतपन परिस्पन्दान्तरित जन्मत्वेनैव तदुपपत्तेः । अन्यथा मध्यत्वस्यापि स्वीकारप्रसंगादिति भूषणः । अर्थात् भ'सर्वज्ञ ने परत्व - अपरत्व को क्रमशः पूर्वोत्पन्नत्व और पश्चादुत्पन्नत्वरूप माना है । इसका खण्डन करते हुए न्यायलीलावतीकार ने भूषणमत को उद्धृत किया है 'यत्तु भासर्वज्ञोयं मतं 'पूर्वोत्पन्नत्वं परत्व' पश्चादुत्पन्नत्वमपरत्रमि'ति तत्कगमक्ष पक्षाक्षमामात्र विजू म्भितम् । पूर्वपश्चाद्भावस्य परत्वापरत्वातिरिक्तस्य निर्वक्तुमशक्यत्वात् । अर्थात् भासर्वज्ञ ने परत्व - अपरत्व को क्रमशः पूर्वोत्पन्नस्वरूप व पश्चादुत्पन्नत्वरूप मानकर परत्व - अपरत्व का जो निराकरण किया है उससे कामत के प्रति असहनशीलता ही व्यक्त होती है, क्योंकि परत्यअपरत्व से भिन्न पूर्वोत्पन्नत्व व पश्चादुत्पन्नत्व का कोई निर्वचन ही संभव नहीं है । अतः प्रकारान्तर से पूर्वोत्पन्नत्व व पश्चादुत्पन्नत्वरूप मानने पर भी परत्व - अपरत्व को मानना ही पड़ता है ।
भासर्वज्ञ ने लक्षण चिह्न तथा लिंग को पर्याय माना है । इसका खण्डन करते हुए उदयन ने कहा है-' यत्पुनराह भूषणो 'लक्षणं चिह्न लिंगभिति पर्याया' इति तदसत् व्यावृत्तौ व्यवहारे वा साध्येऽन्वायनोऽनवकाशात् ।
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वेंकटनाथ ने तन्त्र मुक्ताकलाप तथा न्यायपरिशुद्धि में भूषणमत उधृत किया है'नित्याया एव बुद्धेः स्वयमभिदधतः केचिदद्रव्यभावम् । सम्बन्धं धर्मतोऽस्याः कृतकमथयन् भूषणन्याय सक्ताः ॥६
'अत एव हि भूषणमते नित्यसुखसंवेदनसिद्धिरपवर्गे साधिता । ९ आनन्दवर्धन ने भगवद्गीता की टीका में यह प्रतिपादित किया है कि भूषणमतानुसार अपवर्गप्राप्ति
1. मानमनोहर, पृ. ७८-७९
2. न्यायलीलावती, पृ. ३१
3. न्यायलीलावती, पृ. ५०
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4. किरणावली, पृ. ३०
5. तत्त्वमुक्का कलाप, पृ. ६५६
6. न्यायपरिशुद्धि, प्रथम भांग, पृ. १७
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