Book Title: Bhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Ganeshilal Suthar
Publisher: L D Indology Ahmedabad

Previous | Next

Page 263
________________ २४८ न्यायसार यह भी न्यायसार में प्रमेयविशेष आत्मेन्द्रियादि का योगदर्शनरीति से हेय, हेयहेतु, हान, हानोपाय भेद से चातुविध्यविभाग तथा योगदर्शन और बौद्धदशन से भिन्न उनके स्वरूप का प्रतिपादन, अपरात्मा, परमात्मा दोनों को अपवर्गाङ्गता का प्रतिपादन, अपवर्गप्राप्ति के लिये योगदर्शनोक्त यमानयमादि अष्टांगों का उपाय रूप से प्रतिपादन तथा परमात्मा का शैव प्रत्याभज्ञादर्शनानुकूल स्वरूपनिरूपण भासर्वज्ञ की विशेषताएँ हैं। 'अपवग नरूपण' नामक अष्टम विमर्श में अपवर्ग का स्वरूपप्रतिपादन भासर्वज्ञ का सर्वोत्कृष्ट विशेषता है। प्राचीन समय में न्यायदर्शन आनन्दसंवितविशिष्ट दुःखात्यन्ताभावरूप मुक्ति का मानने वाला था, न कि केवल दुःखात्यन्ताभावरूप मुक्ति को, जै लाकि उपलभ्यमान निम्न उक्तियों से सिद्ध है "दुःखहानाय नो युक्ता सुखदुःखात्मकं परम् । न हि कश्चित् पदार्थज्ञो मोहासद्धौ प्रवर्तते ।। वरं वृन्दावनेऽरण्ये शुगालत्वं वृणोम्यहम् । न तु निविषयं मोक्षं गौतमो गन्तुमिच्छति । अत्यन्तनाशे गुणसंगतेर्या स्थिति भावेत् कणभक्षपक्षे । मुक्तिस्त्वदीये चरणाक्षपक्षे सानन्दसंवित्सहिता विमुक्तिः ॥" किन्तु उत्तरकाल में वैशेषिकशास्त्र के वर्धमान प्रभाव के कारण जैसे अन्य न्यायदर्शनाभिमत तत्त्वों का समावेश न्यायदर्शन में हो गया, उसी प्रकार आनन्द. संवित् का पारत्याग कर केवल दुःखात्यन्तीभावरूप मुक्ति का ही प्रतिपादन किया । किन्तु भासर्वज्ञ ने सर्वप्रथम यह दुःखात्यन्ताभावरूप मुक्ति न्यायदर्शन को अभिमत है, इसका खण्डन कर आनन्दसंवित्सहित दुःखात्यन्ताभाव ही मुक्ति है, इस प्राचीन गौतमसमत सिद्धान्त का पुनरुज्जीवन व प्रतिष्ठापन किया । इस शोधप्रबन्ध में यह बतलाने का प्रयास किया गया है कि सूत्रकार ने वैशेषिकदर्शन की तरह कहीं भी मुक्ति में सकलात्मविशेषगुणोच्छेद का निरूपण नहीं किया, किन्तु 'बाधनालक्षणं दुःखम् 1 इस सूत्र के द्वारा दुःख का स्वरूप बतलाकर · तदत्यन्तबिमोक्षोऽपवर्ग ३ इस सूत्र के द्वारा उसके अत्यन्ताभाव को अपवर्ग बतलाया है, क्योंकि सम्यग् ज्ञान के द्वारा 'दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्यः। इस सूत्र में प्रातपादित मिथ्याज्ञानादि के अपाय के द्वारा दुःख का ही आत्यन्तिक उच्छेद होता है, आनन्द की प्राप्ति उससे नहीं होती। आनन्द स्वतःसिद्ध है, जो कि दुःखादिरूप प्रतिबन्धक के द्वारा संसारदशा में अभिव्यक्त नहीं रहा है, किन्तु सम्यग्ज्ञान द्वारा मिथ्याज्ञाननिवृत्तिकम से दुःखरूप प्रतिबन्धक का नाश होने पर उसकी अभिव्यक्ति मुक्तिदशा में हो जाती है। मुक्तिदशा में स्वतः सिद्ध आनन्द की ही अभिव्यक्त होने से उसकी प्राप्ति सूत्र में निर्दिष्ट नहीं है। 1. न्यायसुत्र, 11११२१ 1. न्यायमच, १११२२ 2. १1११२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274