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न्यायसार
न मानने पर ईश्वरज्ञान की व्याख्या नहीं हो सकेगी। ईश्वर एक है और उसके ज्ञान के याथार्य का अवधारण करने वाला दसरा कोई नहीं है। ईश्वर को ज्ञान अज्ञात नहीं रह सकता । अज्ञात रहने पर उसकी सर्वज्ञता का हान हो जायेगा । इस आपत्ति से बचने के लिये भासर्वज्ञ ने तीन विकल्प दिये हैं। वादिराज सूरि ने उन तीनों विकल्पों को उद्धृत करते हुए कहा है-'भासर्वज्ञेन पक्षत्रयमुपन्यस्तम्अनैकान्तिकत्वपरिहारार्थ परमेश्वरस्य ज्ञानद्वयमभ्युपगन्तव्यम् । तदुव्यातरेकेण वा सर्वज्ञत्वम् । अनित्यत्वे सति इति वा हेतुविशेषणं कर्तव्यम् । वादिराज ने इसे यों भी कहा है- अर्थ-ज्ञानं तदन्तरवेद्यम् , अनित्यत्वे सति वेद्यत्वात् कलशवत् । माहेश्वरे च ज्ञाने तद्विशिष्टस्य हेतोरभावात ।' नैयायिकों के अनुसार ज्ञान स्व. प्रकाश नहीं है, वह अर्थप्रकाशन में सहायता करता है। यहां प्रश्न होता है कि जब ज्ञान स्वयं ज्ञात नही है, तब यह कैसे निश्चय किया जाय कि इससे व्यवहार प्रवृत्त होता है । इस शंका के भासर्वज्ञोक्त समाधान को वादिराज ने उद्धृत किया है'यदुक्तं भासर्वज्ञेन तदप्रवृत्ती ततोऽमी व्यवहाराः प्रवृत्ता इति कुतोऽवगम इति चेततद्व्यवहारदर्शनादेव अकुरदुःखादिदर्शनाद् बीजाधर्मादिनिस्रयवत् ।' बौद्ध अवयवों से भिन्न अवयवी की सत्ता नहीं मानते । वादिदेव सूरि ने बौद्धमत के उपन्यास रूप में धर्मकीति के अवर्यावनिराकरणपरक
'पाण्यादिकम्पे सर्वस्य कम्पप्राप्तेविरोधिनः । एकस्मिन् कर्मणोऽयोगात् स्यात् पृथक्सिद्धिरन्यथा । एकस्य चावृत्ती सर्वस्यावृत्तिः स्यादनावृत्तौ। दृश्येत रक्ते चैकस्मिन् रागोऽरक्तस्य वाऽगतिः ।।
नास्त्येकः समुदायोऽस्मादनेकत्वेऽपि पूर्ववत् । इन श्लोकों को उद्धृत कर बौद्वमत की स्थापना कर भासर्वज्ञ मतानुसार बौद्धमत का निराकरण करते हुए उसके मत का उल्लेख किया है
'भासर्वज्ञस्य प्रत्यवस्थानम्-यत् तावन्नास्त्येकोऽवयवी, तस्य पाण्यादिकम्पे सर्वकल्पप्राप्ते रति, तदयक्तम. व्याप्तेरप्रसिद्धत्वात, न हि यस्य पाण्यादकन्पे सर्व. कम्पप्राप्तिस्तस्याभावः इत्येवं व्याप्तिः क्वचित गृहीता । नापि यस्य सत्त्वं तस्य न पाण्यादिकम्पे सर्वकम्पप्राप्तिरित्येवं व्याप्तिः परेण दृष्टा । न च दृष्टान्ताभावे स्वपक्षसिद्धौ परपक्षानराकरणे वा क्वचिद्रतोः सामर्थ्य दृष्टम ।' इनसे आंतरिक्त अन्य दार्शनिकों ने भी भासवज्ञमत को उद्धृत किया है, परन्तु विस्तारभय से उनके उद्घरण यहां नहीं दिये जा रहे हैं। 1. न्यायविनिश्चय विवरण, प्रथम भाग, पृ. २२२ 2. वही, पृ. २२१ 3. वही, पृ. २२७ 4. प्रमाणवार्तिक, का, ८६, ८७.४८ 5. न्यायविनिश्रयविवरण, प्रथम भाग, पृ. ३६८
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