Book Title: Bhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Ganeshilal Suthar
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 255
________________ २४० न्यायसार वैशेषिकसूत्र की एक अज्ञातकर्तृक व्याख्या में भी भूषणमत उद्धृत है। प्राभाकर मीमांसक तथा भूषणकार गुणत्व को सामान्य के रूप में स्वीकार नहीं करते। इसीलिये उसने कहा है-'प्राभाकरन्यायभूषणकारादीनां गुणत्वासिद्धस्तदभावस्याप्रसिद्ध. त्वात् ।'1 उदयन ने तात्पर्यपरिशुद्ध में अधिकरणसिद्धान्त के लक्षणसूत्र की व्याख्या करते हुए यह सूचित किया है कि भूषणकार ने इसकी दो प्रकार से व्याख्या की है-' एतच्च भूषणभृतयो द्विधा व्याचक्षाते । किरणावलीप्रकाशकार ने भी भासर्वज्ञमत को उद्धृत किया है-'लक्षणस्य केवल व्यतिरेकित्वम् विदुषा भूषणेन अन्यवव्यतिरेकित्वमभ्युपेत्वापादितं दूषणमुपन्यस्यति । न्यायशास्त्र के विभिन्न पदार्थों पर प्रमुख नैयायिकों के मत उद्धृत करते हुए ताकिकरक्षाकार वरदराज ने भूषणमत का भी उल्लेख किया है। अविज्ञातार्थ निग्रहस्थान के प्रसंग में भूषणमत को उद्धृत करते हुए कहा है-'परिषदनुज्ञोप. लक्षणं त्रिरभिधानमिति भूषणकारः ।' विपर्यास नामक निग्रहस्थानसम्बन्धी भूषणमत को भी उद्धृत किया है -' भूषणकारस्तु विपर्ययेणार्थप्रतीतिसम्भवादपशब्दवान्नयमकथायामेवैतन्निग्रहस्थानमिति मन्यते स्म । ___ उद्योतकर ने अप्रतिभा निग्रहस्थान का लक्षण करते हुए बतलाया है-'श्लोकादिपाठादिभिरवज्ञां दर्शयन्नोत्तरं प्रतिपद्यते इति तदप्रतिभानिग्रहस्थानं मूढत्वात् ।। भूषणकार ने यह माना है कि श्लोकादिपाठ करने पर अर्थान्तर, अपार्थकादि निग्रहस्थान की प्रसक्ति हो जायेगी । अतः तूष्णोभाव ही अप्रतिभा निग्रहस्थान है। प्रस्तुत भूषणमत को उद्धृत करते हुए तार्किकरक्षाकार ने कहा है-'भूषणकारादयस्तु श्लोकादिपाठे अर्थान्तरापार्थकादेप्रसंगात् तूष्णाभावमेवाप्रतिभानिग्रहस्थानमाहुः ।" मतानुज्ञा निग्रहस्थान के विषय में भी भूषणमत को उद्धृत किया है-'भूषणकारः पुनरेवं व्याख्यातवान् यस्तु स्वपक्षे दोषमनुद्धृत्य केवलं परपक्षे दोषं प्रसंजयति स तु परापादितदोषाभ्युपगमात् परमनुजानातीति मतानुज्ञया निगृह्यत इति ।' वरदराज ने ताकिकरक्षासारसंग्रह में मानसोल्लास से निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किये हैं, 1. वैशेषिक दर्शन (मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, १९५७), पृ. ११ 2. तात्पर्यपरिशुद्धि, १1१1३. 3. किरणा वला प्रकाश, पृ. १९७ 4. तार्किकरक्षा, पृ. ३३७ 5. वही, पृ. ३११ 6. न्यायवार्तिक, ५।२।१८ 7. तार्किकरक्षा, पृ. ३५१ 8. वही, पृ. १५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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