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परवती ग्रन्थकारों... सम्यकपरोक्षानुभवः आर्षः । किरणावली में उदयन ने भी आर्षज्ञान के योगिप्रत्यक्षान्तः र्भाव का खण्डन किया है-'न च योगिप्रत्यक्षत्व, योगधर्माजन्यत्वात् । न च प्रकृष्टधर्मशब्दवाच्यत्वेन समानत्वम् , प्रकृष्टशब्दप्रवृत्तावेकनिमित्तविरहात । उनका आशय यह है कि आषज्ञान को योगिप्रत्यक्ष नहीं माना जा सकता, कयोंकि वह योगजधर्मजन्य नहीं है। प्रकृष्टधर्मजन्यत्व आर्षप्रत्यक्ष व योगिप्रत्यक्ष दोनों में समानधर्म है, इससे भी योगिप्रत्यक्ष में आषप्रत्यक्ष का अन्तर्भाव संगत नहीं, क्योंकि दोनों में धर्म के प्रकर्ष का कारण एक नही , अपितु विभिन्न है । अतः दोनों में भेद मानना ही उचित है।
भासर्वज्ञ ने अनध्यवसाय का संशय में अन्तर्भाव किया है । परवतो वैशेषिकों तथा वादिदेव सूरि आदि ने इस मान्यता का खण्डन किया है। वादिदव ने भासर्वज्ञमत का निराकरण करते हुए कहा है-'नन्वयमनध्यवसायः संशयान्न विशिष्यते, विशेषानवधारणात्मकत्वाादात तु न तर्कोयम्, स्वरूपभेदान् । अनवस्थतानेकको टस्पर्शित्वं हि संशयस्य स्वरूपम् । सर्वथा कोट्यसंस्पशित्वं चानध्यवसायस्योत महाननयोर्भद ।। अर्थात् संशय में अनिश्चित अनेककाटिक ज्ञान होता है और अनध्यवसाय में कोई भी कोटि नहीं होती । अतः अनध्यवसाय का अन्तर्भाव संशय में नहीं हो सकता। न्यायलीलावतीकार श्रीवल्लभ ने भी अनध्यवसाय के संशयान्तर्भाव का खण्डन करते हुए कहा है - तृतोये तु संशय एवायमिति भूषणः । मैवम् । सामान्यतोऽवगते जिज्ञासते वाच्यावशेष यदा कि शब्दामिलापः तदानध्यवसायः । अव्यवस्थितनानावाचकवाच्यत्वप्रतिभासे तु सशयः । अथात् असमुच्चित नानावस्तुविषयक ज्ञान अनध्यवसाय है, यह तृताय विकल्प मानने पर अनध्यवसाय का संशय में अन्तर्भाव है, क्योंकि संशय में भी ऐसा हो ज्ञान हाता है, ऐसा भूषणकार का कथन है, किन्तु वस्तुस्थिति ऐसा नहीं है। क्योंकि सामान्यतः ज्ञात तथा विशेषतः अज्ञात वस्तु में किमिदम्' इत्याकारक व्यवहार का विषय अनध्यवसाय होता है तथा ' स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इस रूप से अव्यवस्थित नाना वस्तुओं की प्रतोति संशय है।
उदयनाचार्य ने भी अनध्यवसाय को संशय से भिन्नता स्थापित की है - 'अनुपलब्धसपक्षावपक्षसंस्पर्शस्य धर्मस्य दर्शनात् विशेषत उपलब्धानुपलब्धकोाटकं ज्ञानमनध्यवसायः। अत एवायं संशयाभिद्यत स धुपलब्धतपक्षावपक्षसस्पशवर्मदर्शनादुत्पद्यते । अथात् सशय में सपक्ष तथा विपक्ष उभयवृत्ति धमों की उपलब्ध होती है जबकि अनध्यवसाय में सपक्षविपक्षोभयवृत्ति धमी का उपलब्धि नहीं होती।
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1. मानमनोहर, पृ. ९. 2. किरणावला, पृ. २०६ 3. Nyayabhasana-A Lost work on Medieval Indian Logic, -A. L. Thakur
JBRS, Vol. XLV, P. 99. Footnote No. 71 4. न्यायलीलावती, पृ. ५७ 5. किरणावली, पृ. १७८
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