Book Title: Bhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Ganeshilal Suthar
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 250
________________ परवती ग्रन्थकारों... २३५ भासर्वज्ञ ने संख्या को पृथक् गुण न मानकर एकत्व को अभेदरूप तथा द्वित्वादि को भेदरूप बतलाया है। अतः मानमनाहरकार का कथन है कि संख्या को स्वीकार न करने के कारण भूषणमतानुसार अन्तःकरण में द्वित्व या बहुत्व संभावित नहीं होता-'भूषगस्य संख्यानभ्युपगमेन मनोगतत्वस्य दूरापास्तत्वात् ।'1 __ न्यायलीलावतीकार श्रीमद्वल्लभाचार्य ने भी प्रस्तुत भासर्वज्ञमत के प्रति घोर विरोध प्रदर्शित करते हुए कहा है-'तदिदं चिरन्तनशेषिकमतदूषणं' भूषणकारस्य अतित्रपाकरम् । तदि यमनाम्नातता भासर्वज्ञाचार्यस्य यदयमाचार्यमप्यवमन्यते । तथा च 'तदनुयायिनस्तात्पर्याचार्यस्य सिंहनादः संविदेव हि भगवती' इत्यादि । उदयनाचार्य ने भी किरणावी में संख्या के पृथग्गुणत्व की स्थापना करते हुए भा पर्वज्ञमत का निराकरण किया है-'एतेन स्वरूपाभेद एकत्वं स्वरूपभेदस्तु नानात्वं द्वित्वमिति भूषणः प्रत्यारूयातः।' 'स्वरूपाभेदो हि घटस्य घट एबोच्यते । घटादिप्रत्ययस्य स्वरूपप्रत्ययस्य च घटाघेकनिबन्धनत्वात एकादिप्रत्ययस्य च घटपटादसाधारणत्वात्, तथा च तन्निबन्धन एकादिप्रत्ययः तं विहाय पटं नोपसमेत् । एवं स्वरूपभेद एव यदि द्वित्वं तदा श्यादिष्वपि द्वित्वप्रत्ययः स्यात्, टादावेव वा स्वरूपभेद इति पटादौ द्वित्वप्रत्ययो न स्यादिति । भासर्वज्ञ विभाग को संयोगाभावरूप मानते हैं। विभागज विभाग भी उनको मान्य नहीं है । परवर्ती वैशेषिक आचार्यों ने भासर्वज्ञ को उपर्युक्त मान्यता का खण्डन किया है । वैशेषिकों के अनुसार हस्तकुड्यविभाग से शरीर कुइयविभाग उत्पन्न होता है। विभागज विभाग को स्वीकार न करने पर हस्तकुड्यमंयोग का विनाश होने पर भी उत्तर विभागरूप कारण के अभाव में शरीरकुड्यसंयोग का विनाश नहीं होगा । भासर्वज्ञ की मान्यता है कि हस्तकुड्संयोग से भिन्न शरीरकुड्यसंयोग नामक कोई वस्तु नहीं है । यदि हस्तकुड्यसंयोगदर्शन से शरीरकुड्यसंयोग को कल्पना की जाती है तब फिर हस्तकर्मदर्शन से शरीर में कर्म की कल्पना क्यों नहीं की जाती ? अतः भासर्वज्ञ को कथन है कि हस्तकुड्यसंयोग के नाश से ही शरीरकुड्यसंयोग का नाश हो जाता है, उसके नाश के लिये विभागज विभाग की कल्पना की आवश्यकता नहीं । भूषणकार की इस मान्यता को उद्धृत करते हुए न्यायलीलावतीकार ने कहा है-'तथा कारणाकारणजन्यविभागः । यथा अंगुलितरुविभागात पाणितरुविभागः। नन्वत्र किं प्रमाणम् ? विभक्तबुद्धिरांत चेत्, न, तदसिद्धेः । अन्यथा कर्मापि कि नांगुलिकर्मजं स्यादिति भूषणः' । 1. मानमनोहर, पृ. २६ 2. न्यायलीलावती, पृ. ४१ 3. किरणाबली, पृ. १२४ 4. न्यायलीलावती, पृ. १२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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